।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, रविवार

साधकोंके प्रति-१५ (अ)

 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
 
सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा परिपूर्ण है; ऐसे परमात्मतत्त्वमें स्थित होनेपर एक अखंड आनन्द रहता है । वह आनन्द भी किंचिन्मात्र भी घटता नहीं । अनन्त ब्रह्मा उत्पन्न हो-होकर समाप्त हो जायँ तो भी वह ज्यों-का-त्यों रहता है । परन्तु प्रेमका आनन्द प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है । सन्तोंने कहा है कि चन्द्रमाकी कला बढ़ती है और बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा आ जाती है पर प्रेमके आनन्दमें कभी पूर्णिमा आती ही नहीं‒

प्रेम सदा बढ़िबौ करै, ज्यों ससिकला सुबेष ।
पै  पूनो  यामें  नहीं,  ताते  कबहुँ   सेष ॥

ऐसा जो प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम है, भगवान्‌के प्रति खिंचाव है, उसका नाम है‒श्रीराधा ।

यों तो पहले कृष्णजन्माष्टमी आती है और पीछे राधाष्टमी आती है पर पहले वर्षमें श्रीजी प्रकट होती हैं और दूसरे वर्षमें भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं । इस कारण श्रीजी साढ़े ग्यारह महीने बड़ी है और पीछे अवतार लेनेसे भगवान् श्रीकृष्ण छोटे हैं । तात्पर्य यह हुआ कि पहले भगवान्‌का खिंचाव होता है और पीछे भगवान् प्रकट होते हैं । भक्तलोग भी पहले नाम-जप करते हैं, कीर्तन करते हैं और पीछे उनकी उत्कण्ठा होती है । ऐसे ही सत्संग करते-करते सत्संगमें एक रस पैदा होता है, सत्संगमें खिंचाव होता है, वह भी बढ़ता रहता है । सुबह इतनी जल्दी और वर्षामें भी लोग सत्संगके लिये इकट्ठे हो जाते हैं, यह क्या है ? यह उनका सत्संगमें खिंचाव है । सत्संगकी बातें प्रिय लगती है और बार-बार खिंचाव होता है । इससे आगे चलकर प्रेमकी प्राप्ति होती है । इसीलिये पहले श्रीजी प्रकट होती है और फिर श्रीभगवान् प्रकट होते है । रामायणमें आया है‒

हरि व्यापक सर्बत्र समाना ।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥
                                                      (मानस १ । १८४ । ३)

देवताओंसहित ब्रह्माजी आपसमें विचार करते है कि भगवान् कहाँ मिलेंगे तो कोई कहते हैं कि भगवान् क्षीरसागरमें मिलेंगे, कोई कहते हैं कि गोलोकमें मिलेंगे और कोई कहते हैं कि वैकुण्ठमें मिलेंगे । पार्वतीजीको रामायण सुनाते हुए भगवान् शंकर कहते हैं कि उस सभामें मैं भी था तो मैंने यह कहा कि भगवान् श्रीहरि किसी एक जगह ही रहते हों, यह बात नहीं है । वे तो सब जगह समानरूपसे मौजूद हैं पर प्रेम होनेपर ही प्रकट होते हैं । फिर कहा‒

अग जगमय सब रहित बिरागी ।
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥
                                                    (मानस १ । १८४ । ४)

जैसे दियासलाई-घर्षण करते ही अग्नि प्रकट हो जाती है । दियासलाईमें अग्नि तो पहले भी थी । पहले नहीं होती तो प्रकट कैसे होती ? अतः दियासलाईमें अग्नि है पर प्रकट नहीं है । ऐसे ही भगवान् सब जगह हैं और परिपूर्ण हैं पर वे प्रकट नहीं हैं । वे प्रकट कब होते हैं ? जैसे दियासलाईको रगड़ लगती है तो उससे अग्नि प्रकट हो जाती है, ऐसे ही जब प्रेमरूप रगड़ लगती है अर्थात् भगवान्‌का चिन्तन करते-करते प्रेम हो जाता है तो उससे भगवान् प्रकट हो जाते हैं ।

आजु जो हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ ।
तौ  लाजौं  गंगा   जननीको,   सांतनु   सुत     कहाऊँ ॥
स्यंदन  खंडि  महारथ  खेंडौं,  कपिध्वज  सहित  डुलाऊँ ।
इतो न करौं सपथ मोहि हरिकी, छत्रिय गतिहिं न पाऊँ ॥
पांडव-दल  सनमुख  ह्वै  धाऊँ,  सरिता  रुधिर  बहाऊँ ।
सूरदास रनभूमि बिजय बिनु,  जियत   पीठ  दिखाऊँ ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

 ‒‘साधकोंके प्रति’पुस्तकसे