।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
एकादशी-व्रत कल है

शीघ्र भगवत्प्राप्ति कैसे हो ?


(१६ मार्चके ब्लॉगसे आगेका)
संतोंने कहा है‒

चाहै  तू योग करि भृकुटी-मध्य ध्यान धरि,
चाहै नाम रूप मिथ्या जानि निहारि लै ।
निर्गुन, निर्भय, निराकार ज्योति व्याप रही,
ऐसो तत्त्वज्ञान निज मन में तू धारि लै ॥
नारायनअपने कौ आप ही बखान करि,
मोतें, वह भिन्न नहीं, या विधि पुकारि लै ।
जौलौं तोहि नंद कौ कुमार नाहिं दृष्टि पर्‌यो,
तौलौं तू भलै ही बैठि ब्रह्म को विचारि लै ॥

उस नन्दकुमारमें इतना आकर्षण है कि एक बार उसके दृष्टिगोचर होनेपर फिर ब्रह्म-विचार करनेकी शक्ति ही नहीं रहती । ऐसे प्रभुके रहते हुए हम नाशवान् एवं दुःख देनेवाले सांसारिक पदार्थोमें फँसे हुए हैं और फँस ही नहीं रहे हैं, उनकी माँग कर रहे हैं । मान-बड़ाई, आराम, निरोगता, सुख-सुविधा, धन-सम्पत्ति आदि अनेक प्रकारके भोग्य पदार्थोंको चाहते है‒यह बड़ी भारी बाधा है ।

यदि भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् न भी हो तो भी आप घबरायें नहीं । भगवान् कहते हैं‒‘व्यवसायात्सिकाबुद्धिरेकेह’ (गीता २ । ४१) निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है । अतएव आप यही दृढ़ निश्चय कर लें कि हम तो एक भगवान्‌की तरफ ही चलेंगे । यदि केवल भगवान्‌की तरफ चलनेकी इस अभिलाषाको ही विचारपूर्वक जाग्रत् रखा जाय तो यह अभिलाषा अपने-आप उत्कट हो जायगी । इसका कारण यह है कि प्रभुकी अभिलाषा सही है और संसारकी अभिलाषा गलत है । हम भी (स्वरूपतः) अविनाशी हैं । परमात्मा भी अविनाशी है और परमात्मप्राप्तिकी अभिलाषा भी अविनाशी है । परन्तु संसार और संसारकी अभिलाषा‒दोनों ही नाशवान् हैं । परमात्मविषयक अभिलाषा यदि थोड़ी-सी भी जाग्रत् हो जाय तो वह बड़ा भारी काम करती है ।

अपने-अपने इष्टदेवके स्वरूपका ध्यान करते हुए आप इसी समय हे नाथ ! हे नाथ ! ऐसे पुकारते हुए शान्त.......चुपचाप......उनके चरणोंमें गिर जायँ । ऐसा मान लें कि हम उनके चरणोंमे ही पड़े हैं और सदा उनके चरणोंमें ही पड़े रहना है । इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं करना है, क्योंकि करनेके आधारपर भगवान्‌को खरीदा नहीं जा सकता । उनकी प्राप्तिमें अपनेको कभी अयोग्य न माने । जो सर्वथा अयोग्य या अनधिकारी होता है वही भगवच्चरणोंकी शरण होनेका अधिकारी होता है । जिसको संसारमें कोई पद या अधिकार नहीं मिलता, वह परमात्मप्राप्तिका अधिकारी होता है । भगवान्‌के चरणोंमें गिर जाना बहुत बड़ा भजन है । इसलिये ऐसा मानते हुए उनके चरणोंमें गिर जायँ कि यह हाड़-मांसका अपवित्र शरीर तथा मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ हमारे नहीं है और हम उनके नहीं हैं । हमारे केवल प्रभु हैं और हम केवल प्रभुके हैं ।

पूरी गीता कहनेके बाद भगवान्‌ने सम्पूर्ण गोपनीयोंसे भी अतिगोपनीय बात यह कही‒

सर्वधर्मात्परित्यज्य      मामेकं    शरणं   व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                  (गीता १८ । ६६)

सम्पूर्ण धर्मों (कर्तव्यकर्माक आश्रय) को त्यागकर केवल एक मेरी शरणमें आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा । तू शोक मत कर ।’

इसलिये दूसरे सब आश्रय त्यागकर एक प्रभुका ही आश्रय ले लें, क्योंकि यही टिकेगा, दूसरे आश्रय तो कभी टिक ही नहीं सकते ।

अंतहि तोहि तजैंगे पामर ! तू न तजै अब ही ते ।
मन         पछितैहैं         अवसर           बीते ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!


 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे