।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
महाशिवरात्रि-व्रत
प्रवचन- १५ (ब)
 
 
 
सत्संग करते-करते सत्संगमें, भगवन्नाममें, भगवत्सम्बन्धी बातोंमें, भगवद्गीता आदि ग्रन्थोंमें एक खिंचाव होता है, प्रियता होती है । तभी तो वर्षामें भी लोग इतनी जल्दी सत्संग करनेके लिये आ जाते है । बिना खिंचाव, प्रियताके कोई आ नहीं सकता । हठसे कोई क्रिया ज्यादा देर नहीं की जा सकती । यह जो इस प्रकार मनका खिंचाव है, यह श्रीजीका अवतार है । श्रीजी प्रकट हो जायँगी तो भगवान् श्रीकृष्ण भी प्रकट हो जायँगे । भगवान्‌में खिंचाव पहले होता है और पीछे भगवान् प्रकट होते है ।
 
संसारमें खिंचाव पहले-पहले तो बढ़िया लगता है पर आगे जाकर उसकी पोल निकल जाती है । किसी भोगको भोगते समय पहले तो उसमें खिंचाव होता है पर बादमें कम होते-होते मिट जाता है । जैसे, भोजन करने बैठे तो जबतक भोजन नहीं मिलता, तबतक जैसी प्रियता होती है, भोजन मिलनेपर वैसी प्रियता नहीं रहती । एक-एक ग्रास लेते है तो पहले ग्रासमें जो रस आता है, वह रस दूसरे ग्रासमें नहीं आता । ऐसे एक-एक ग्रासमें रस कम होते-होते अन्तमें वह मिट जाता है । एक साधुकी ऐसी ही बात सुनी है । वे शहरके बाहर एकान्तमें रहते थे और भिक्षा माँगकर अपना निर्वाह करते थे । भीतर रागके संस्कार बड़े विलक्षण होते हैं । सब कुछ छोड़कर भजनमें लगनेवालोंमें भी राग रह जाता है । पर ज्यों-ज्यों भगवान्‌में प्रेम बढ़ता है, ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता है, त्यों-त्यों वह राग मिटता जाता है । उन साधुको राग बड़ा तंग करने लगा । उनके मनमें आती कि भिक्षामें रूखी-सूखी रोटी मिलती है, साग-दाल भी पूरी नहीं मिलती और खीर तो मिलती ही नहीं ।
 
खीर खानेकी बार-बार मनमें आने लगी तो वे एक श्रद्धालु हलवाईके यहाँ गये । उसकी उनमें बड़ी श्रद्धा-भक्ति थी कि ये सन्त बड़े त्यागी महात्मा है । उससे कहा कि भैया ! आज हम भिक्षामें केवल खीर लेंगे, आज तो खीर बनाओ । वह बड़ा ही खुश हुआ कि महाराज तो मिठाई देनेपर भी नहीं लेते है, दूध भी नहीं लेते है, रूखी-सूखी रोटी खाते है, आज तो मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ ! उसने बड़ी खुशीसे बढ़िया खीर बनायी । नौजा, पिस्ता, इलायची और मीठा डालकर खूब औटाकर सुगन्धित खीर बनायी और महाराजसे कहा कि पाओ । बाबाजीने कहा कि इसे ठण्डी कर दो । उसने ठण्डी करके बाबाजीको खप्परमें दे दी । खप्पर काफी बड़ा था, उसे भर दिया । पहले जो उत्कण्ठा थी कि खीर मिलेगी, अब मिलनेपर उतना खिंचाव नहीं रहा । खीर खाने लगे तो जो उसमें प्रियता थी, वह खाते-खाते कम होने लगी । फिर भी वे खाते ही रहे । अपने मनमें कहने लगे कि आज खूब खीर पी लो, बहुत दिनोंसे खीर खानेकी मनमें आ रही है । ज्यादा खीर पीनेसे उलटी हो गयी तो उसे खप्परमें ही भर लिया । अब उसी उलटीवाली खीरको फिर पी गये तो ऐसी उलटी हुई कि सारी खीर निकल गयी ! अब तो उम्रभरके लिये खीरसे अरुचि हो गयी । खीरका नाम लेते ही रोंगटे खड़े हो जाते ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे