।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
श्राद्धादिकी अमावस्या
प्रवचन- १५ (ब)
 
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
ऐसा कोई भोग है ही नहीं, जिससे अरुचि न होती हो पर भगवान्‌के प्रेममें कभी रुचि कम होती ही नहीं । जबतक भोगोंमें आसक्ति रहती है, तबतक भगवान्‌में रुचि नहीं होती । भगवान्‌में रुचि हो जाती है तो फिर हो ही जाती है । फिर अरुचि कभी हो ही नहीं सकती । लोग कहते है कि भगवान्‌में मन नहीं लगता । संसारकी आसक्ति होनेसे ही भगवान्‌में मन नहीं लगता । जब मन भगवान्‌में लग जायेगा तो फिर वहाँसे कभी अलग नहीं होगा । जैसे मक्खी हरेक चीजपर बैठ जाती है पर अंगारपर नहीं बैठती । अगर अंगारपर बैठ जाय तो फिर वह उठेगी नहीं । फिर तो धुआँ ही उठेगा ! इसी तरह यह मन भगवान्‌में लग जाय तो फिर वहाँसे हटेगा नहीं; क्योंकि ऐसा विलक्षण आनन्द और कहीं है ही नहीं । इससे बढ़कर दूसरा कोई लाभ है ही नहीं‒‘यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः ।’ (गीता ६ । २२) ।
मीराबाईने कहा है‒
अब छोडूँ तो छूटे नाहिं, भई छूँ नागर नट की ।
हिरदे में वह बस गयी राणा, लटक मुकुट की ।
अब तो लागी गोविन्दासे प्रीत राणा पहले क्यों नहि अटकी ॥
अब श्यामसुन्दरको छोड़ना मेरे वशकी बात नहीं है । छोड़ना चाहूँ तो भी छूटता नहीं । क्यों नहीं छूटता ? कारण कि यह परमात्माका अंश है । परमात्माका सुख मिलनेपर कैसे छूट सकता है ! वह तो असली अपना है पर यह संसार अपना नहीं है । मैं बहुत बार कहा करता हूँ कि भाई ! यह शरीर आपका नहीं है; और संसार आपका नहीं है क्योंकि ये सदा नहीं रहते पर आप सदा रहते हैं । आप थोड़ी कृपा करें कि इनको अपना मत मानें और अपने लिये मत मानें । यह जो शरीर और संसारकी सामग्री है, यह केवल दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मिली है, दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये मिली है । यह अपनी नहीं है और अपने लिये नहीं है । आप चेतन है, यह जड आपके लिये कैसे होगा ? आप नित्य रहनेवाले हैं, यह अनित्य आपके साथ कैसे रहेगा ? न इनके साथ आप रह सकते हैं और न ये आपके साथ रह सकते हैं । भगवान् आपसे अलग नहीं हो सकते और आप भगवान्‌से अलग नहीं हो सकते । आप भूलसे संसारके सम्मुख और भगवान्‌से विमुख हो जाते हैं पर फिर भी आप भगवान्‌से अलग नहीं हो सकते ।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं ॥
                                (मानस ५ । ४३ । १)
भगवान्‌के सम्मुख होनेपर सब पाप-ताप मिट जाते हैं । अब हम भगवान्‌के सम्मुख होने लगे हैं‒इसकी पहचान यह है कि सत्संगमें कुछ रस आने लगा है । अगर भगवान्‌में तल्लीन हो जायँ तो भगवान्‌का अलौकिक प्रेम होगा । इस प्रेमका स्वरूप है श्रीराधाजी ! श्रीराधाजी प्रेमका अवतार है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे