।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन अमावस्या, वि.सं.२०७२, बुधवार
अमावस्या, ग्रसोदित खण्ड-सूर्यग्रहण
प्रवचन- १५ (ब)
 
 
 
 
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक ऐसी कथा सुनी है कि गोपिकाओंसे एक बार श्रीजी कहती है कि अरी सखियो तुम मुझे कन्हैयाके दर्शन करा दो, नन्दनन्दनके दर्शन करा दो ।’ गोपिकाएँ समझती है कि यह बनावटी बात कह रही हैं; क्योंकि यह तो सदा ही श्यामसुन्दरको देखा करती हैं । गोपिकाओंने विचार किया कि अब जब कभी यह श्यामसुन्दरको देखती हुई मिलेंगी तो जाकर पकड़ लेंगी । एक दिनकी बात है कि श्रीजी जल भरने गयीं तो वहाँ श्यामसुन्दरकी तरफ दृष्टि जाते ही जल भरना भूल गयीं और ज्यों-की-त्यों खड़ी रह गयीं । गोपिकाओंने देखा कि आज श्रीजी और श्यामसुन्दर दोनों ही खड़े है तो आपसमें कहने लगीं कि आज श्रीजीको पकड़ो । वे श्रीजीके पास जाकर बोलीं कि आप तो कहती हैं कि मुझे श्यामसुन्दरके दर्शन करा दो तो आज क्या कर रही हो ? किसके दर्शन कर रही हो ?’ श्रीजी आश्चर्यसे कहने लगीं कि सखी ! क्या तुम्हारेको श्यामसुन्दरके दर्शन हुए है ?’ अब वे सब गोपिकाएँ हँसने लगीं कि तुमने भी तो श्यामसुन्दरको सामने खड़ा देखा था ।’ श्रीजी बोलीं कि मेरी दृष्टि तो उनके कुण्डलकी झलकपर ही लग गयी, इस कारण प्यारेके दर्शन कर ही नहीं सकी ! तुम बड़ी भाग्यशालिनी हो, बड़ी श्रेष्ठ हो, जो तुम्हारेको श्यामसुन्दरके दर्शन हुए हैं ।’
प्रेममें प्रेमास्पदके जिस अंगमें दृष्टि लग जाती है, वहाँ लग ही जाती है । श्रीजीकी दृष्टि भगवान्‌के कुण्डलमें लग गयी तो उसे वहाँसे हटाकर मुखकी तरफ ले जाना मुश्किल हो गया ! अब कौन देखे उधर ! कुण्डलकी आभामात्र देखकर वे वहीं मुग्ध हो गयीं । इस कारण श्रीजी कहती हैं कि श्यामसुन्दरके दर्शन नहीं हो रहे हैं, उनके दर्शन कराओ !ऐसी जो भगवद्दर्शनकी उत्कट अभिलाषा है, उसका नाम है श्रीजी । राधाष्टमीके दिन वे हमलोगोंके सामने प्रकट हुई है, जिससे हम भी प्रेमका वह विलक्षण सुख ले सकें ।
भगवान्‌की कैसी विलक्षण लीला है कि प्रेम-तत्त्वको समझानेके लिये वे स्वयं श्रीकृष्ण और श्रीजीके रूपसे प्रकट हुए । अगर भगवान् चाहते तो दो मित्ररूपसे, पुरुषरूपसे प्रकट हो जाते अथवा दो स्त्रीरूपसे प्रकट हो जाते पर इससे लोग प्रेम-तत्त्वको समझ नहीं सकते थे । स्त्रीका पुरुषमें और पुरुषका स्त्रीमें जो आकर्षण होता है, उस आकर्षणको शुद्ध बनानेके लिये भगवान् पुरुष‒श्रीकृष्ण और स्त्री श्रीराधाके रूपमें प्रकट हुए । हमलोगोंका जो आकर्षण है, वह अशुद्ध है, निकृष्ट है; क्योंकि वह अपने सुखके लिये है और मिटनेवाला है पर यह बात श्रीजी और श्रीकृष्णमें नहीं है ।
हमलोगोंकी सत्संगमें, भजन-ध्यानमें जो यत्किंचित्  रुचि है, यह उस प्रेमको समझनेका कुछ नमूना है । यह रुचि अधिक बढ़ जायगी तो यह श्रीजीका स्वरूप अर्थात्‌ प्रेमरूप हो जायगी । तब भगवान्‌में ही तल्लीन हो जानेसे प्रेमका विलक्षण आनन्द मिलेगा जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे