।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७३, रविवार
गणगौर
 ‘है’ (परमात्म-तत्त्व) की ओर दृष्टि रखें



(गत ब्लॉगसे आगेका)

अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है और जाती है इनका आदर करनेसे सत्‌की तरफसे विमुखता हो जाती है पर अभाव हो जायगा क्या ? अभाव नहीं होता । यह जो अपना निर्णय है न कि यह हरदम रहता है अखण्ड, अभाव नहीं होता । यह जो अपना निर्णय हरदम रहता है, अखण्डरूपसे । कितनी विचित्र बात है यह ! स्वतः-सिद्ध बात है यह । इसमें कोई नयी बात नहीं हुई । अभी मेरे कहनेसे कोई नयी बात सीख गये हो, ऐसी बात नहीं है । पहले लक्ष्य नहीं था, इधर लक्ष्य हो गया । जैसे, हमने देखा यह माइक दीखता है । पहले माइककी तरफ न देखना हुआ, पर माइकका कोई अभाव थोड़े ही था । उसे देखा और दीखने लग गया । इसी तरहसे यह हैतत्त्व है ज्यों-का-त्यों ही था, पहले भी, अब भी है और अगाड़ी भी रहेगा । पहले, अभी, अगाड़ी‒यह काल-भेद हुआ । सत्‌में तो भेद नहीं हुआ ।

घटना, परिस्थिति, दशा‒इनमें परिवर्तन हुआ, इनमें फर्क पड़ेगा; परन्तु हैमें क्या फर्क पड़ेगा ? उसमें फर्क सम्भव ही नहीं है । कोई जन्मे, कोई मरे, नफेमें, नुकसानमें, आनेमें, जानेमें उसमें क्या फर्क पड़ता है ? उसमें बिना किये स्वतः स्थिति है । ‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ अपने स्वमें स्थिति है तो सुख-दुःख आवे तो क्या ? इनमें समान रहें, मान-अपमानमें समान रहें, निन्दा-स्तुतिमें समान रहें । ‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ पत्थरमें, मिट्टीके ढेलेमें, सोनामें क्या फर्क है ? इन सबमें हैमें क्या फर्क हुआ ? जीनेमें और मरनेमें क्या फर्क हुआ ? शरीर बीमार हुआ और स्वस्थ हुआ तो क्या फर्क हुआ ? संयोग और वियोगमें क्या फर्क हुआ ? ठीक दीखता है न ! हैज्यों-का-त्यों है बस । इतनी-सी बात है, लम्बी-चौड़ी नहीं है । पूर्ण हो गये एकदम । हैकी तरफ दृष्टि रहे ।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

असत्‌की तो सत्ता ही नहीं है, असत्‌की सत्ता होवे तो हटे । अब सत्‌का अभाव नहीं तो कैसे हटे ? हैज्यों-का-त्यों है परिपूर्ण, सम, शान्त, स्वतः-सिद्ध है । इसका कोई ध्यान नहीं करना है, चिन्तन नहीं करना है । ध्यान-चिन्तनमें भी वैसा ही है । चिन्तन छूट गया तो भी वैसा ही है । ध्यान लगे तो भी है, ध्यान नहीं लगे तो भी है । वृत्ति लग गयी तो भी है, नहीं लगी तो भी है । इसमें क्या फर्क पड़ा ? ठीक है न ! बस, यही बात है । केवल उधर लक्ष्य करना है और कुछ करना नहीं है । कोई निर्माण नहीं करना है, न चिन्तन करना है, न समाधि लगाना है, न ध्यान लगाना है । हैज्यों-का-त्यों है बस । क्या करना बाकी रहा ? कैसी मौजकी बात है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे