।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७३, बुधवार

साधन विषयक दो दृष्टियाँ 
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)

अन्तःकरणकी वृत्तियाँ ठीक हों, तब तो ठीक हुआ और वृत्तियाँ ठीक नहीं हैं तो बेठीक हुआ‒यह मानना गलती है । कारण कि अन्तःकरणकी वृत्तियों तो बदलती रहती हैं । बहुत ऊँची अवस्था होनेपर भी बदलती हैं और ऊँची अवस्था होनेपर ही नहीं, सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर अर्थात् तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त हो जानेपर भी पुरुषके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ तो बदलती रहेंगी । हाँ, उनकी वृत्तिमें निषिद्ध फुरणा नहीं होगी । शास्त्र-विपरीत कोई चेष्टा नहीं होगी; परन्तु अन्तःकरणकी वृत्तियाँ तो बदलेंगी ही । बदलना तो इनका स्वभाव है । बदलनेवालेसे अपनेको सम्बन्ध-विच्छेद करना है । इस तरफ ही खयाल करें कि इससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । यह अच्छी हो, मन्दी हो, अपनेको वृत्तियोंसे कोई मतलब नहीं । हमें इससे कोई लेना-देना नहीं । वृत्तियाँ होती हैं तो अन्तःकरणमें होती हैं, ठीक-बेठीक होती हैं तो अन्तःकरणमें होती हैं, अन्तःकरण मैं नहीं हूँ ।

 ‘समदुःखसुख स्वस्थः’ स्वमें स्थित रहे । अपनेमें कोई विकार नहीं है । एक सच्चिदानन्दघन है, ज्यों-का-त्यों है । आप तो वही रहते हो, ऊपरसे भाव बदलता है, क्रिया बदलती है, अवस्था बदलती है, दशा बदलती है, परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है; परन्तु इन सम्पूर्ण बदलनेको देखनेवाले आप तो नहीं बदलते हो । अपनेमें परिवर्तन कहाँ होता है ? अपनेमें अगर परिवर्तन होता तो अवस्थाओंका भेद कैसे मालूम होता है ? अवस्थाओंमें भेद तो उसको मालूम होगा, जो अवस्थाओंमें स्थित नहीं है, अवस्थाओंसे अलग है, उसीको भेद मालूम देगा । जो अलग है, उसमें कोई भेद नहीं मालूम होता । परिवर्तन प्रकृति और प्रकृतिके कार्यमें होता है, वह परिवर्तन हरदम होता ही रहता है । वह परिवर्तन मिटेगा नहीं । अपने साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । ऐसा अनुभव करनेसे ही वास्तवमें अपना काम होगा ।

 इसीको गीतामें कहा है‒‘गुणविभाग और कर्मविभागके तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता’ (गीता ३ । २८) और ‘जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते हुए देखता है, वही यथार्थ देखता है’ (गीता १३ । २९) । ‘जिस समय द्रष्टा तीनों गुणोंके अतिरिक्त किसीको कर्ता नहीं देखता’ (गीता १४ । १९) । ‘तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी निस्सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ (गीता ५ । ८) । सम्पूर्ण क्रियाएँ होते हुए भी अपना कोई सम्बन्ध नहीं है इनके साथ । ‘गुणोंका संग ही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्मका कारण है’ (गीता १३ । २१) । वह अपना किया हुआ है और अपने मिटानेसे ही मिटेगा, मिटानेका दायित्व अपनेपर ही है । जबतक इसके साथ सम्बन्ध मानता रहेगा, ठीक और बेठीक मानता रहेगा, तबतक सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा ।
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे