।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
श्रीरामनवमी-व्रत
साधन विषयक दो दृष्टियाँ
 
 
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒आचरण ठीक नहीं है, तब तो नाराजी होनी ही चाहिये न ?

उत्तर‒होनी चाहिये, तब तो फँसे ही रहोगे । आप राजी और नाराज क्यों होवो ? दोनोंको ही छोड़ो, अच्छेको भी और मन्देको भी छोड़ो । वास्तवमें तो किसीके साथ आपका सम्बन्ध नहीं है । दोनोंको छोड़ दोगे तो मन्दा होगा ही नहीं । स्वतः अच्छा ही होगा । जो बुरा है, उसको अच्छा मानोगे तो अच्छा कभी नहीं होगा, क्योंकि ममता उसके साथ बनी रहेगी । यह ममता ही तो बुराई है । यह थोड़ी बारीक बात है, लेकिन साधकके लिये खास बात है । साधकको द्रष्टा नहीं रहना चाहिये, उपेक्षा करनी चाहिये । द्रष्टा बना रहेगा तो गलती है, बिलकुल उपेक्षा करे, उधरसे आँख मीच ले । अपने तो एक परमात्म-तत्त्व है, उसपर दृष्टि रखे । अच्छे और मन्देपर दृष्टि क्यों रखे ?

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुख बन्धात्मज्यते ॥
                                                                     (गीता ५ । ३)

 जो निर्द्वन्द्व हो जाता है, वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है और जो द्वन्द्वोंमें फँसा रहता है, वह मुक्त नहीं होता । द्रष्टा रहना मैं नहीं कहता हूँ । दोनोंकी उपेक्षा करना कहता हूँ । दोनोंसे अलायदे हो आप ! वह दृश्य रहेगा, आप द्रष्टा रहोगे और देखना-दर्शन होगा तो त्रिपुटी कैसे मिटेगी ? और त्रिपुटी मिटे बिना कल्याण कैसे होगा ? इस वास्ते देखना ही नहीं है । देखना है तो कुत्तेमें क्यों नहीं देखते हो ? दूसरे मनुष्यमें क्यों नहीं देखते ? उनमें नहीं देखते तो इसमें क्यों देखते हो ? इसमें देखते हो तो सिद्ध हुआ कि इसके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध आपने माना है, कुत्तेके साथ आपने माना नहीं । अगर आप चेतन-तत्त्व हैं तो तत्त्व जैसे कुत्तेमें है, वैसे ही इसमें है और जैसा इसमें है, वैसा ही कुत्तेमें है । निर्लिप्तता जब उसके साथ है तो इसके साथ भी होनी चाहिये । उसके साथ तो निर्लिप्तता है और इसके साथ नहीं है तो यही बन्धन है और क्या ? विचार करो और बोलो !

 प्रश्न‒इसका मतलब हुआ स्वामीजी ! यह सब परिवर्तनशील है । इसको देखते रहें ?

 उत्तर‒परिवर्तनको देखो मत, परिवर्तनशीलकी उपेक्षा कर दो । ‘आत्मसंस्थं मनः कृत्वा’ एक सच्चिदानन्दघनमें मन लगाकर ‘न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ अच्छा-मन्दा कुछ चिन्तन मत करो । तब ठीक होगा और अच्छे-मन्देके साक्षी बने रहोगे, द्रष्टा बने रहोगे तो अच्छे और मन्दे दोनोंके साथ सम्बन्ध रहेगा और दोनोंके साथ सम्बन्ध रहेगा तो द्वन्द्व रहेगा । द्वन्द्व ही बन्धन है । ‘सुख-दुःख नामक द्वन्द्वोंसे विमुक्त ज्ञानी पुरुष उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते हैं ।’ भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि ‘तूँ हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित, योग और क्षेमको न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो’, ‘हे अर्जन ! संसारमें इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञताको प्राप्त हो रहे हैं; परन्तु निष्कामभावसे श्रेष्ठ कर्मोंका आचरण करनेवाले जिन पुरुषोंका पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोहसे मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकारसे भजते हैं ।’ इस वास्ते परिवर्तनशीलको देखना नहीं, पर उससे विमुख होना है । देखोगे तो उसके सम्मुख हो जाओगे । सम्मुख होनेसे चिपक जाओगे ।

सुनहु तात माया कृत  गुन  अरु  दोष  अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअ देखिअ सो अबिबेक ॥
 
दोनोंको देखनेवाले द्रष्टाको अविवेकी बताया । यह बात साधकके कब्जेमें आ जाय, अधिकारमें आ जाय तो बहुत बढ़िया चीज है ।

प्रश्न‒कब्जेमें आ जानेका प्रभाव तो फिर इन वृत्तियोंके द्वारा ही देखा जायगा ?

उत्तर‒ना, वृत्तियोंके द्वारा नहीं देखना है, वृत्तियोंकी उपेक्षा करनी है । वृत्तियोंके द्वारा देखोगे, तबतक तो कब्जेमें नहीं आयी है । जबतक वृत्तियोंके द्वारा देखकर कसौटी लगाते हैं, तबतक मैं कहता हूँ वह बात अधिकारमें नहीं आयी है । वह स्थिति नहीं हुई है । वृत्तियोंको लेकर कसौटी नहीं लगानी चाहिये । वृत्तियाँ सब-की-सब प्रकृतिमें हैं, पर आप प्रकृतिके अंश नहीं हो, आप परमात्माके अंश हो । इस वास्ते आपको परमात्माकी तरफ देखना है, वृत्तियोंकी तरफ नहीं देखना है । ‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ यह प्रकृति है । असली बात समझमें आ जाय तो वहाँ कोई कसौटी नहीं लगेगी । कसौटी यही है कि इनसे कोई मतलब नहीं है, न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है, न शोक है; न ठीक है, न बेठीक है; न अनुकूलता है, न प्रतिकूलता है । एक वही है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे