।। श्रीहरिः ।।


 
आजकी शुभ तिथि

चैत्र शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७३, शनिवार

एकादशी-व्रत कल है
दूसरोंके हितका भाव
 
 
 
 
 
मेरे मनमें एक बात विशेषतासे आती है कि हम यह जानते हैं कि शरीर, कुटुम्ब, धन, जमीन, मकान आदि ये सब उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । सदा हमारे साथ रहते नहीं, रहेंगे नहीं और रहना सम्भव नहीं है फिर भी ‘ये हमारे साथ रहेंगे’ ऐसी धारणा बना रखी है, जो बिलकुल गलती है । ये सब एकदम नष्ट हो रहे हैं, प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं । जितना दृश्य जगत् है, वह सब अदृश्य हो रहा है । दीखनेवाले सब न दीखनेमें जा रहे हैं । भावरूपसे दीखनेवाला संसार अभावमें जा रहा है । हैरूपसे दीखनेवाले सब ‘नहीं’ में जा रहे हैं, फिर भी इनको साथ रखना चाहते हैं । इनके साथ रहना चाहते हैं । ये हमारे साथ रहें । जो मिला हुआ है, वह बना रहे तथा नया और मिल जाय‒ये दो प्रकारकी इच्छा है । यह कहाँतक उचित है बताओ ? जो रहनेवाली नहीं है, उसकी इच्छा करना, उसकी प्राप्तिके लिये समय लगाना, उसके लिये ही सोचना कि धन मिल जाय, कुटुम्ब मिल जाय, मान मिल जाय, बड़ाई हो जाय आदि-आदि पता नहीं, कितनी लाइन लगा रखी है ? यह ठीक है क्या ? यह सुधार कब करेंगे ? किस दिनके लिये बाकी छोड़ा है, कब करोगे यह विचार ?

 आप जो काम करते हैं, वही काम करते रहें, पर उसे स्थायी न मानें और जो कुछ मिला हुआ है, यह स्थायी बना रहे‒यह इच्छा न करें । बस, इतना सुधार करना है । काम-धन्धा आप जो करते हैं, वही करें । शास्त्रोंके अनुसार उत्साहपूर्वक काम करें; परन्तु उसका भरोसा न करें, स्थायी न मानें । यह हमारे पास रह जाय और अमुक-अमुक परिस्थिति बन जाय, इस इच्छाका त्याग करें । जैसी परिस्थिति बननेवाली है, वैसी बन जायगी । प्रतिकूल बननेवाली है तो प्रतिकूल बन जायगी । अनुकूल बननेवाली होगी तो अनुकूल बन जायगी । जो नहीं है उसकी आशा और उसका भरोसा‒ये दो चीज छोड़ दें, बस । इनको छोड़नेमें हम पराधीन नहीं हैं; क्योंकि यह बात समझमें आ गयी कि ये चीजें रहनेवाली नहीं हैं । प्रत्यक्ष बात है कि ये सब नष्ट हो रही हैं । इस वास्ते इनका मोह, आशा, भरोसा न रखें, इनका त्याग कर दें ।

बड़ी विचित्र बात है ! हम यह सुनते हैं, समझते हैं, जानते हैं, मानते हैं कि ये रहनेवाले नहीं हैं फिर भी इनमें ही आकृष्ट होते हैं । तो केवल इनका जो आकर्षण है, उसको मिटाना है और कुछ नहीं करना है, फिर सब ठीक हो जायगा । आकर्षणमें फायदा कोई-सा भी नहीं है और नुकसान सब तरहका है । आकर्षण रखनेसे पराधीन हो जाते हैं । ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ आकर्षण कैसे मिटे ? इनको दूसरोंकी सेवामें लगावें, दूसरोंको सुख पहुँचावें । यह भाव बना लें कि सबको सुख कैसे हो ? सबको आराम कैसे मिले ? सबके लाभ कैसे हो ? सबका हित कैसे हो ? यह सोचते रहें‒‘सर्वभूतहिते रताः’ हमारी रति, प्रीति सबके हितमें हो जाय । अगर प्रीति ऐसी है कि हमारे लाभ हो जाय, हमारे संग्रह हो जाय, हमारा मान हो जाय तो यहाँ ही घाटा है । यह भाव बदल दें, यह खास चीज है ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे