।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७३, रविवार
कामदा एकादशी-व्रत (सबका)
दूसरोंके हितका भाव
 
 
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारेसे जो वैर-विरोध रखें, उनका भी भला कैसे हो ? उनको शान्ति कैसे मिले ? उनको लाभ कैसे हो ? उनका हित कैसे हो ? उनका कल्याण कैसे हो ? यह सोचो । हमारा भाव ऐसा होना चाहिये । बड़ा भारी लाभ है इसमें । अन्तःकरण बहुत जल्दी निर्मल होता है । किसीका भी अहित सोचनेसे अपना अन्तःकरण मैला होगा और कर कुछ नहीं सकोगे । हमारे करनेसे कुछ हो जाय यह बात है नहीं । आप किसीका अहित सोचकर अहित नहीं कर सकते और हित सोचकर हित नहीं कर सकते; क्योंकि उनका सांसारिक हित-अहित उनके भाग्यके अनुसार होगा । हमारा भाव अगर दूसरोंका हित करनेका होगा तो हमारा कल्याण जरूर हो जायगा । हमारा भाव यदि दूसरोंके अहितका होगा तो हमारा पतन जरूर हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । कुछ नहीं कर सकेंगे, सिवाय इसके कि हम अपना कल्याण कर सकते हैं और अपना पतन कर सकते हैं ।
 
सर्पाणां च खलानां  च परद्रव्यापहारिणाम् ।
अभिप्राया न सिद्ध्यन्ति तेनेदं वर्तते जगत् ॥
 
सर्पोंका, दुष्टोंका, चोरोंका, डाकुओंका अभिप्राय सिद्ध नहीं होता । इसीसे यह संसार बरत रहा है । नहीं तो संसारको चौपट कर दें । चोर और डाकू किसीके पास धन रहने देंगे क्या ? पर उनका मनोरथ सिद्ध नहीं होता । आप कितना हित कर लोगे ! कितना अहित कर लोगे ! कुछ नहीं कर सकोगे । हित करके दुनियाको निहाल कर दो यह बात नहीं है । आपका भाव हित करनेका होगा तो आप निहाल हो जाओगे और आपका भाव अहित करनेका होगा तो आपका नुकसान हो जायगा । किसीके पास आपसे ज्यादा धन है तो आप उसे मिटा तो सकते नहीं तो क्यों जलन होने दो मनमें ? यह मुफ्तमें आग क्यों लगाओ ?
 
सर्वे  भवन्तु  सुखिनः    सर्वे  सन्तु   निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
 
ऐसा भाव रखो तो आपके क्या नुकसान है ? अन्तःकरण निर्मल हो जाय मुफ्तमें, बड़ा भारी फायदा होगा । बड़े-बड़े यज्ञ, दान, तीर्थ, तप आदि करनेकी अपेक्षा ऐसे भावसे अन्तःकरण निर्मल जल्दी होगा । भीतरका मैलापन जल्दी दूर होगा । बड़े-बड़े शुभ कर्मोंसे इतनी जल्दी नहीं होगा, पर आपको तो क्या है कि जब किसी सुखीको दुःखी देखते हैं, तब आपको चैन पड़ता है । बोलो कितना नुकसान है ! यह कितनी खराब बात है ! आप मुफ्तमें पापके भागी होते हैं और मिलना कुछ नहीं है । कोरा अन्तःकरण मैला कर लो भले ही । भाव गिराकर अपना पतन करना है । बाजारमें भाव गिर जाते हैं तो घाटा लग जाता है और भाव तेज होनेसे मुनाफा हो जाता है ।
 
हमने एक बात सुनी कि एक बार एसेम्बली (विधानसभा) में बात हुई कि ये जितने धनी हैं, ये सब निर्धन कैसे हों ? तो कहा गया कि इनपर टेक्स लगाओ । टेक्स-पर-टेक्स लगाओ, जिससे किसी तरह ये धनी लोग निर्धन हो जायँ । यह बात जब बीकानेर दरबारने सुनी तो वे बोले कि तुम भावना करते हो कि सब धनी निर्धन कैसे हो जायँ ? भावना ही करो तो अच्छी करो, ‘सभी निर्धन धनी कैसे हो जायँ’‒यह भावना करो । ऊन्धी (उलटी) भावना क्यों करते हो ! अरे, मनके लड्‌डू बनाये जायँ तो उनमें मीठा कम क्यों डालो ? इसमें कौन-सा खर्चा लगता है ! भगवान्‌से भी यही कहो कि महाराज ! सब सुखी हो जायँ, कोई दुःखी न रहे । अब भगवान् करें या न करें, भार उनपर है । आपका काम तो हो ही गया । किसीका भी अहित न हो । अहित तो हमारे वैरीका भी न हो । वह चाहे हमारे साथ वैर रखे, पर उसका भी हम अहित नहीं चाहेंगे‒‘सर्वभूतहिते रताः’ आप और हम ऐसा कर सकते हैं कि नहीं ? बोलो भाई ! भाव कर सकते हैं । मैं भावका ही कहता हूँ । चीज वस्तु तो इतनी कहाँसे दोगे ? और दोगे भी तो कितनी दोगे ? लाखों, करोड़ों और अरबों रुपये हों तो भी सीमित ही होंगे, पर भाव असीम है । भावसे कल्याण होता है, वस्तुसे नहीं ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे