।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि

चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७३, सोमवार
दूसरोंके हितका भाव
 

 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
नफा वस्तुमें  नहीं,  नफा  भावमें  होय ।
भाव बिहूणा परसराम बैठा पूँजी खोय ॥
 
भावमें स्वतन्त्रता है तो अपने भावमें कमी क्यों रखो भाई ?
 
उमा  संत  की  इहइ  बड़ाई ।
मंद करत जो करहि भलाई ॥
 
अपने तो भलाई करनेका भाव रखो । होना-करना हाथकी बात नहीं है । पर भाव गिराकर, किसीके अहितका भाव करके अपना अन्तःकरण क्यों मैला करें ? प्राणिमात्रके हितमें रति होनी चाहिये । अहित करनेवालोंको नरक और चौरासी लाख योनि होगी मुफ्तमें । वहाँ न तो हित कर सकोगे और न अहित कर सकोगे तो मुफ्तमें क्यों नरकोंमें जाओ । हमें जो कुछ शरीर, वस्तु पदार्थ आदि मिले हैं, उनके द्वारा सबकी सेवा करो, सबको सुख पहुँचाओ, ऐसा भाव होगा तो ये स्वाभाविक दूसरोंकी सेवामें खर्च होंगे ।
 
प्रश्न‒महाराजजी ! जानते हैं कि भलाई करे, अच्छी है लेकिन पता नहीं, यह बुराई किस चोर दरवाजेसे आ जाती है ?
 
उत्तर‒यह तो सुखकी इच्छा है, इससे मनुष्य बुरा काम कर बैठता है । उसीसे अशान्ति होती है । जो अशान्त होता है, वही अशान्ति पैदा करता है । दुःखी होता है, वही दुःख देता है । सुखी होता है, वह किसीको दुःख नहीं दे सकता । इनके कारण ही दुःख देनेकी भावना होती है । कोई भी मनुष्य दूसरेका अनर्थ कर ही नहीं सकता, जबतक अपना अनर्थ पूरा न कर ले । अपना अनर्थ करके ही दूसरेका अनर्थ करता है; परन्तु सुखकी इच्छाके कारण मनुष्यका अपने अनर्थकी तरफ खयाल ही नहीं जाता । वह समझता है कि मैं दूसरेका अनर्थ नहीं करता हूँ । आप स्वयंतक तो न सांसारिक हित पहुँचता है, न अहित पहुँचता है । आप दूसरेका हित करें तो भी वह उसके स्वयं वहाँतक हित पहुँचता ही नहीं । केवल आपको लाभ और हानि होती है ।
 
प्रश्न‒सुख-दुःख किसे कहते हैं और इनकी निवृत्ति कैसे हो ?
 
उत्तर‒देखो, एक मार्मिक बात है कि वास्तवमें सुख-दुःख हैं नहीं । हमारे मनके अनुकूल हो जाय तो सुख हो गया और मनके विरुद्ध हो गया तो दुःख हो गया । बाकी कुछ है नहीं सुख-दुःख ! ये हमारे बनाये हुए हैं । एक कुम्हार था, उसके दो लड़कियाँ थीं । उन दोनोंका पासके गाँवमें विवाह कर दिया था । एक लड़कीके खेतीका काम था और दूसरीके मिट्टीके बर्तनका काम था । एक दिन कुम्हार लड़कियोंसे मिलनेके लिये गया । पूछा, ‘बेटी, क्या ढंग है ? ‘पिताजी, खेती सूख रही है । अगर पाँच-दस दिनोंमें वर्षा नहीं हुई तो फिर कुछ नहीं होगा ।’ दूसरी लड़कीके यहाँ गया और पूछा तो वह कहने लगी ‘पिताजी ! बर्तन बनाकर सूखनेके लिये रखे हैं, अगर दस-पन्द्रह दिनमें वर्षा हो गयी तो सब मिट्टी हो जायगी ।’ अब रामजी क्या करें बताओ ? एकके वर्षा होनेसे सुख है और एकके वर्षा होनेसे दुःख है । जिसके वर्षा होनेसे सुख है उसके वर्षा न होनेसे दुःख है तो यह सुख-दुःख अपने बनाये हुए हैं । वर्षा हो जाय अथवा वर्षा न हो‒यह हमारे हाथकी बात तो है नहीं । फिर क्यों सुखी-दुःखी होते हो ? जो हो जाय, उसमें प्रसन्न रहो । जो होना होगा, वह होकर रहेगा ।
 
नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!
 
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे