।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है
देनेके भावसे-कल्याण


(गत ब्लॉगसे आगेका)

त्यागी सोभा जगत में,  करता है सब कोय ।
हरिया गृहस्थी सन्तका, भेदी विरला होय ॥

त्यागी सन्तकी महिमा तो सब जानते हैं और करते हैं, पर गृहस्थी गुप्त सन्तकी महिमा जाननेवाले विरले ही होते हैं । अतः गृहस्थमें रहते हुए दूसरोंकी सेवा करें, उनको सुख पहुँचायें, आराम पहुँचायें । अपना भाव सबके हितका रखें कि सब सुखी हो जायँ, सब नीरोग हो जायँ, सबका कल्याण हो, किसीको थोड़ा भी दु :ख न हो‒

सर्वे   भवन्तु   सुखिनः   सर्वे सन्तु   निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

जिसका स्वभाव दूसरोंका हित करनेका होता है, उसके लिये ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, प्रेम कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता‒

परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
                                  (मानस, अरण्य ३१ । ५)

सेवामें भावका ही महत्त्व है, वस्तुका नहीं । सेवाका भाव (असीम होनेसे) कल्याण करता है, वस्तु (सीमित होनेसे) कल्याण नहीं करती । एक सज्जन भगवान्‌से यह कहा करते थे कि ‘महाराज ! आप सबका पालन-पोषण करते ही हैं, थोड़ा मेरेको भी निमित्त बना दो, थोड़ी मैं भी सेवा कर लूँ ! इससे मेरा मुफ्तने ही कल्याण हो जायगा !’ वास्तवमें कल्याणका मूल्य कोई चुका नहीं सकता । उसका मूल्य किसीके पास नहीं है । अपने-आपको दे दे‒यही उसका मूल्य है !

अपने कर्मोंके द्वारा भगवान्‌का पूजन करनेका मनुष्यमात्र अधिकारी है । पशु-पक्षी सेवा नहीं कर सकते । उनसे सेवा ले सकते हैं; जैसे‒वृक्षोंसे फल, फूल, पत्ते, लकड़ी आदि ले सकते हैं, पशुओंसे दूध आदि ले सकते हैं, पर वे हमें दे नहीं सकते । देनेवाला केवल मनुष्य ही है । मनुष्य इतना विलक्षण है कि वह अपनेको भी देता है, संसारको भी देता है और भगवान्‌को भी देता है अर्थात् अपना कल्याण करता है, संसारकी सेवा करता है और भगवान्‌को राजी करता है ! सेवा करनेवालेको दुनियाकी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज होती है । भगवान् भी भावके भूखे हैं; अतः उनको भी प्रेमकी गरज रहती है ! ऐसा उत्तम मनुष्यशरीर हमें मिला है ! यह कोई मामूली चीज नहीं है । यह भगवान्‌की बहुत बड़ी देन है । बिना हेतु स्नेह करनेवाले प्रभुने कृपा करके यह मानवशरीर दिया है‒

कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत  ईस  बिनु  हेतु   सनेही ॥
                           (मानस, उत्तर ४४ । ३)

ऐसा मानवशरीर पाकर अब देना-ही-देना शुरू कर दें । लेना पशुता है और देना मनुष्यता है । देना शुरू करते ही मनुष्य साधक हो जाता है और जब देना-ही-देना रह जाता है तब वह सिद्ध हो जाता है भगवान्‌के बराबर हो जाता है ‒

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
                          (मानस, उत्तर ४७ । ३)

देवर्षि नारदजी कहते हैं‒

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ।
                                                                 (भक्तिसूत्र ४१)

भगवान् और उनके भक्तमें भेदका अभाव है ।’

यतस्तदीयाः ।
                                                                (भक्तिसूत्र ७३)

कारण कि भक्त भगवान्‌के ही हैं ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे