।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र पूर्णिमा, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
वैशाख-स्नानारम्भ, श्रीहनुमज्जयन्ति
योग
(कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग)



श्रीभगवान्‌ने गीताके आरम्भमें शरीर और शरीरीका विवेचन किया है । शरीर और शरीरी (शरीरवाला)‒दोनोंका विभाग अलग-अलग है । शरीर-विभाग जड़, असत् तथा नाशवान् है और शरीरी-विभाग चेतन, सत् तथा अविनाशी है । गीताके तेरहवें अध्यायमें भगवान्‌ने इन दोनोंको क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा प्रकृति और पुरुष नामसे भी कहा है । शरीरका सम्बन्ध संसारके साथ और शरीरीका सम्बन्ध परमात्माके साथ है । गीताके आरम्भमें इन दोनों विभागोंका विवेचन करनेमें भगवान्‌का तात्पर्य है कि इनको अलग-अलग जानना ही मनुष्यके कल्याणमें खास हेतु है[*]

गीतामें जहाँ भगवान्‌ने ज्ञानयोगका वर्णन किया है, वहाँ शरीर और शरीरी, सत् और असत् क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष आदि दो विभागोंका वर्णन किया है, पर भक्तिके वर्णनमें इसको तीन विभागोंमें कहा है‒परा, अपरा और अहम् (सातवें अध्यायके चौथेसे छठे श्लोकतक), अक्षर, क्षर और पुरुषोत्तम (पन्द्रहवें अध्यायके सोलहवेंसे अठारहवें श्लोकतक) । परन्तु इसमें भगवान्‌ने एक रहस्यकी बात यह बतायी कि परा (चेतन) और अपरा (जड़)‒दोनों ही मेरी प्रकृतियाँ अर्थात् स्वभाव हैं । तात्पर्य है कि भगवान्‌का स्वभाव होनेसे परा और अपरा‒दोनों भगवान्‌से अभिन्न हैं । अतः भक्तिकी दृष्टिसे एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ ( ७ । १९), ‘सदसच्चाहम्’ ( ९ । १९) । ज्ञान अथवा भक्ति, किसी भी दृष्टिसे देखें, सत्ता एक ही है । एक सत्ताके सिवाय कुछ नहीं है ।

जो साधक अपना कल्याण चाहता है, उसको पहले यह विचार करना चाहिये कि वह स्वतः-स्वाभाविक किसकी सत्ता और महत्ताको स्वीकार करता है अर्थात् उसपर किसका प्रभाव अधिक पड़ता है, संसारका, अपने-आपका अथवा परमात्माका । अगर वह संसारको मानता है तो ‘कर्मयोग’ के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा, केवल अपने-आपके ही मानता है तो ‘ज्ञानयोग’ के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा और भगवान्‌को मानता है तो ‘भक्तियोग’ के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा । अगर वह किसीको भी नहीं मानता तो भी उसका कल्याण हो जायगा, क्योंकि किसीको भी न माननेसे तथा कल्याणकी इच्छा होनेसे उसपर किसीका भी प्रभाव नहीं पड़ेगा और किसीका भी प्रभाव न पड़नेसे राग-द्वेष नहीं होंगे, जिससे उसकी मुक्ति स्वतः हो जायगी ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे


[*] क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं         ज्ञानचक्षुषा ।
   भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥
                                       (गीता १३ । ३४)

‘इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्रसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके अन्तर (विभाग) को तथा कार्य-कारणसहित प्रकृतिसे स्वयंको अलग जानते हैं, वे परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं ।’