।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७३, रविवार
योग
(कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग)



(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरीरपर हमारा कोई आधिपत्य (वश) नहीं चलता । इसको हम अपने इच्छानुसार बदल नहीं सकते, इच्छानुसार रख नहीं सकते, इच्छानुसार बना नहीं सकते । इसलिये यह हमारा और हमारे लिये हो ही नहीं सकता । शरीर, इन्द्रियाँ मन, बुद्धि, बल, विद्या, योग्यता आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब संसारका और संसारके लिये ही है । जब शरीर हमारा और हमारे लिये है ही नहीं, तो फिर उसमें हमारी आसक्ति कैसे हो सकती है ? मोह कैसे हो सकता है ? ममता कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती । अपने साथ शरीरकी एकता माननेसे आसक्तिका त्याग हो ही नहीं सकता, और संसारके साथ शरीरकी एकता माननेसे आसक्ति हो ही नहीं सकती । कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध मान लेनेसे अपना सम्बन्ध (शरीरमें अपनापन) छूट जाता है । अतः साधकका खास काम केवल इतना ही है कि वह संसारकी वस्तु संसारको दे दे और भगवान्‌की वस्तु भगवान्‌को दे दे । फिर कामना, ममता, आसक्ति कौन करेगा, किसमें करेगा, कैसे करेगा और क्यों करेगा ? संसारकी वस्तु संसारको दे दें तो मुक्ति प्राप्त हो जायगी और भगवान्‌की वस्तु भगवान्‌को दे दें तो भक्ति प्राप्त हो जायगी ।

मनुष्यसे यह बहुत बड़ी गलती होती है कि वह शरीरको, जो कि संसारकी वस्तु है, अपना मान लेता है । संसारकी वस्तुको अपना मान लेना बेईमानी है और इसी बेईमानीका दण्ड है‒जन्म-मृत्युरूप महान् दुःख । वास्तवमें संसारकी वस्तु शरीरको अपना और अपने लिये मानना मूल भूल है और इस मूल भूलको मिटानेके लिये साधकको तीन काम करने होंगे‒

(१) सीधे-सरलभावसे अपनी भूल स्वीकार करना कि संसारकी वस्तुको अपना मानकर वास्तवमें मैंने बहुत बड़ी भूल की ।

(२) अपनी भूलका दुःख (पश्चात्ताप) करना कि मनुष्य होकर, समझदार होकर, ईमानदार होकर ऐसी भूल मेरेको नहीं करनी चाहिये थी ।

(३) ऐसा निक्षय करना कि अब आगे मैं ऐसी भूल पुनः नहीं करूँगा अर्थात् शरीरको अपना और अपने लिये कभी नहीं मानूँगा ।

इसके बाद साधकका खास कर्तव्य है कि वह ईमानदारीके साथ संसारकी वस्तुको संसारकी ही मानकर उसकी सेवामें लगा दे और भगवान्‌की वस्तुको अर्थात् अपने-आपको भगवान्‌का ही मानकर भगवान्‌के समर्पित कर दे ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे