।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
योग
(कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग)



(गत ब्लॉगसे आगेका)
कार्यमित्येव     यत्कर्म       नियतं     क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥
                                                                                (गीता १८ । ९)

‘हे अर्जुन ! केवल कर्तव्यमात्र करना है‒ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है ।’

इसलिये कर्मयोगमें जो भी साधन किया जाता है, वह कर्तव्यमात्र समझकर किया जाता है । मनुष्यशरीर साधन करनेके लिये मिला है; अतः साधन करना हमारा कर्तव्य है । इस प्रकार कर्तव्य समझकर साधन करनेसे कर्तापन, कर्म और करण‒तीनोंसे अर्थात् संसारमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर स्वरूपमें स्थिति स्वतः हो जाती है, जो कि वास्तवमें है । परन्तु भक्तियोगमें नामजप, कीर्तन आदि जो भी साधन किया जाता है, वह कर्तव्यमात्र समझकर नहीं किया जाता, प्रत्युत अपने प्रेमास्पद भगवान्‌की सेवा (पूजन) समझकर किया जाता है । कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करना दवा लेनेके समान है और भगवान्‌का पूजन समझकर कर्म करना भोजन करनेके समान है । बीमार होनेपर दवा लेना कर्तव्य है, पर भूख लगनेपर भोजन करना कर्तव्य नहीं है, प्रत्युत प्राणोंका आधार है । भक्तिमें भगवान्‌में अपनापन मुख्य होता है । जैसे बालक माँको पुकारता है तो कर्तव्य समझकर नहीं पुकारता, प्रत्युत अपनी माँ समझकर अपनेपनसे पुकारता है, ऐसे ही भक्त भगवान्‌को अपना समझकर पुकारता है, कर्तव्य समझकर नहीं[*] कर्तव्य तो दूसरोंके लिये होता है, पर पुकार अपने लिये होती है ।

भक्तियोगमें भक्तकी प्रत्येक क्रिया भगवान्‌के लिये होती है; क्योंकि वह खुद भी भगवान्‌का है और शरीर भी । परा और अपरा‒दोनों ही प्रकृतियाँ भगवान्‌की हैं । इसलिये भक्त न तो शरीरको अलग करता है और न आप अलग होता है, प्रत्युत शरीरसहित अपने-आपको भगवान्‌के अर्पित कर देता है । जैसे बच्चेकी प्रत्येक क्रिया माँको प्रसन्न करनेवाली होती है; क्योंकि बच्चा माँके सिवाय अन्य किसीको मानता या जानता ही नहीं । ऐसे ही भक्तकी प्रत्येक क्रिया भगवान्‌को प्रसन्न करनेवाली होती है, क्योंकि वह भगवान्‌के सिवाय अन्य किसीको मानता या जानता ही नहीं । उसका भगवान्‌में अनन्यभाव होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे


[*] बच्चा तो सर्वथा अज्ञ होता है, पर भक्त सर्वथा विज्ञ होता है ।