।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
योग
(कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग)




(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे बालक माँको पुकारता है तो यह नहीं देखता कि माँ कैसी है, उसका रूप, स्वभाव, आचरण, कपड़े, गहने आदि कैसे हैं, प्रत्युत केवल अपनेपनको देखता है कि ‘मेरी माँ है ।’ ऐसे ही भक्त यह नहीं देखता कि भगवान् कैसे हैं । वह तो केवल यही देखता है कि ‘भगवान् मेरे हैं ।’ जो भगवान्‌के प्रभावको देखकर उनकी भक्ति करता है, वह वास्तवमें प्रभावका भक्त होता है, भगवान्‌का नहीं । जैसे माँ अपने बालकके रूप, स्वभाव, आचरण आदिको न देखकर केवल अपनेपनको देखती है कि ‘मेरा बेटा है’, ऐसे ही भगवान् भी भक्तके स्वभाव, आचरण आदिको न देखकर अपनेपनको देखते हैं कि यह मेरा ही अंश है और मेरेको ही चाहता है । तात्पर्य है कि भगवान् अपने अंश ‘स्व’ को देखते हैं, वह जिसके पराधीन हु आ है, उस ‘पर’ को नहीं देखते; उसकी पुकारको देखते हैं, उसकी पात्रताको नहीं देखते‒

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय   बार हिए की ॥
                               (मानस, बाल२९ । ३)

सच्चे हृदयसे भगवान्‌को पुकारनेपर वे अपना प्रेम प्रदान करते हैं । त्याग, तपस्या, विवेक आदिसे उनके प्रेमकी प्राप्ति नहीं होती । केवल भगवान्‌को ही अपना मानकर पुकारनेके सिवाय प्रेम-प्राप्तिका और कोई उपाय नहीं है । भगवान्‌के सिवाय दूसरेको अपना माननेसे ही प्रेम प्रकट नहीं हो रहा है; क्योंकि अनन्यता नहीं हुई ।

मुक्ति और भक्ति (प्रेम)‒दोनोंकी प्राप्ति सहज है, स्वतः-स्वाभाविक है । शरीर संसारसे अलग नहीं हो सकता और हम स्वयं परमात्मासे अलग नहीं हो सकते । शरीरके साथ हमारा मिलन कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । परमात्माके साथ हमारा अलगाव कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । मनुष्यने दो खास भूलें की हैं कि शरीरको अपने साथ मान लिया और परमात्माको अपनेसे दूर मान लिया । अगर वह शरीरको संसारके साथ मान ले तो मुक्ति हो जायगी और स्वयंको परमात्माके साथ मान ले तो भक्ति हो जायगी । मुक्ति प्राप्त होनेपर मनुष्यका जीवन निरपेक्ष हो जाता है, वह स्वाधीन हो जाता है और भक्ति प्राप्त होनेपर मनुष्यकी परमात्मासे आत्मीयता हो जाती है उसकी दृष्टिमें एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं रहता ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे