।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
मनुष्यकी मूर्खता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

आने-जानेवाली चीजोंसे अपनेमें फर्क पड़ जाय‒यह महान् मूर्खता है । ये चीजें तो आने-जानेवाली हैं । कुटुम्ब भी आने-जानेवाला है, धन भी आने-जानेवाला है । अधिकार, पद आदि भी आने-जानेवाले हैं । मिनिस्टर बन गये तो फूँक भर गयी कि हम बड़े हो गये । क्या हो गये तुम ? मूर्खता है सांगोपांग, एक केश-जितनी भी इसमें सत्यता नहीं है । आप बताओ, क्या हुआ ? आज हम हिन्दुस्तानके बादशाह बन जायँ और कल तिरस्कारपूर्वक उतार दे तो क्या इज्जत है इसकी ? और मरना पड़ेगा ही, सब छूटेगा ही, उस दिन क्या साथमें रहेगा ? इन नाशवान् चीजोंको लेकर आप अपनेमें बड़ापन और ऊँचापन देखते हैं, यह वास्तवमें कोई इज्जत है ? यह कोई मनुष्यता है ? परमात्माके आप साक्षात् अंश हो, उसकी प्राप्ति करो तब तो अपनी जगह आ गये, ठिकानेपर आ गये । नहीं तो ठिकानेसे चूक गये और आने-जानेवाली चीजोंमें बँध गये । खयालमें आता है कि नहीं ? शंका हो तो खूब खुलकर करो । हो नहीं सकती शंका ! ठहर नहीं सकती ! टिक नहीं सकती !

अविनाशीके सामने विनाशी चीज क्या मूल्य रखती है ? उन चीजोंसे राजी और नाराज होते हो । महान् दुष्टता है यह । यह बड़ी भारी दुष्टता है । इस वास्ते इन आने-जानेवाली चीजोंसे अपनी इज्जत-बेइज्जत मत मानो । निन्दासे, प्रशंसासे दुःखी और सुखी मत होवो । आपकी इज्जत है नहीं यह । निन्दासे नाराज होना भी बेइज्जती है और प्रशंसासे राजी होना भी बेइज्जती है । महान् फजीती है आपकी । इसके समान फजीती और कोई है ही नहीं । कौन हो आप ? परमात्माके साक्षात् अंश हो । दो-चार आदमियोंने ठीक कह दिया तो क्या हो गया और दुनियामात्र बुरा कह  दे तो क्या हो गया ? क्या है यह ? यह कोई मूल्य है क्या ? यह कोई स्थायी चीज है ? आपके साथ रहनेवाली है ? ऐसे जानेवालीको लेकर राजी और नाराज होते हो, सुखी-दुःखी होते हो । यह महान् मूर्खता है । छोटी-मोटी मूर्खता नहीं है, बड़ी भारी मूर्खता है ।

‘समदुःखसुखः स्वस्थः’जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित दुःख-सुखको समान समझनेवाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रियको एक-सा माननेवाला और अपनी निन्दा-स्तुतिमें भी समान भाववाला है । जो मान और अपमानमें सम है, मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है । (गीता १४ । २४- २५) वह गुणातीत आप हो ! गुणातीत बनते नहीं हो ! बनी हुई गुणातीत अवस्था टिकेगी नहीं । अगर अभ्यासके द्वारा गुणातीत बनोगे तो वह गुणातीत होना कोई कामका नहीं है । आप स्वयं गुणातीत हो ! साक्षात् परमात्माके अंश हो ! आप अपनेको भूल गये । कितनी अवस्थाएँ बदली हैं ! बालक, जवान, वृद्ध-अवस्था, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति-अवस्था, मान-अपमानकी अवस्था, निन्दा-स्तुतिकी अवस्था, घाटे-नफेकी अवस्था‒सब बीती है, पर आप वे-के-वे ही रहे । फिर भी आने-जानेवाली चीजोंके साथ हाँ-में-हाँ मिलाकर हँसने और रोने लग जाते हो ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे