।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
बेईमानीका त्याग


९-३-८३                                                                                           गोविन्द-भवन
कलकत्ता

एक परमात्मा है और एक संसार है‒ये दो चीजें हैं । यह जीवात्मा परमात्माका तो अंश है और इसने संसारको पकड़ा है‒खास बात यही है । संसारने इसको नहीं पकड़ा है, इसने संसारको पकड़ा है । जिसको पकड़ना आता है, उसको छोड़ना भी आता है । जैसे अपनी कन्याको आप अपनी पुत्री मानते हैं । उसको ब्याह देनेपर आपकी पुत्री होते हुए भी आप उसे बिलकुल भीतरसे अपनी नहीं मानते । बाई अपने घर चली गयी । अपना मानना और अपना न मानना आपको आता तो है ही । परमात्मा तो है अपना और संसार अपना नहीं है‒यह सच्ची बात है, सार चीज है यह । इससे निहाल हो जाओगे, बस । यह सच्ची बात है, यह बनावटी बात नहीं है । इसमें कुछ उद्योग करना पड़ेगा या परिश्रम करना पड़ेगा ऐसा नहीं है । केवल इस बातको स्वीकार कर लें कि यह शरीर और संसार हमारा नहीं है और परमात्मा हमारे हैं ।

इसीको गीतामें कहा‒‘मामेकं शरणं व्रज ।’ एक मेरी शरण हो जा, यह गीताका सार है । हम केवल भगवान्‌के हैं और केवल भगवान् ही हमारे हैं । संसारके हम नहीं हैं और संसार हमारा नहीं है । अब संसारके साथ सम्बन्ध क्या है ? कि मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीर आदि ये सब संसारके हैं और संसारसे मिले हैं । इनको संसारकी सेवाके लिये लगाना है । कुटुम्ब, धन, सम्पत्ति आदि संसारसे मिले हैं, इनको अपने लिये मानना महान् धोखा है, महान् नरकोंका रास्ता है । रुपया-पैसा अपने लिये मानना महान् बेईमानी है । न्याययुक्त कमाओ; परन्तु जहाँ आवश्यकता देखो, वहाँ उदारतापूर्वक खर्च करो । उनका मानकर खर्च करो, अपना मानकर नहीं । अपने रोटी खा ली, अब बची रोटी किसकी है ? पता नहीं । अपने कपड़ा पहन लिया, अब बचा हुआ किसका है ? पता नहीं । जिसको रोटी न मिले, जिसको कपड़ा न मिले, उसकी है वह । उसकी उतनी ही है, जितनी वह रोटी खा सके, जितना कपड़ा पहन सके । उतनी देंगे भाई, उतनी हम लेंगे । जिसको जितनी जरूरत है, उसको उतनी दे दो और दे दो उसकी समझकर । वह उसके पाँती (हिस्से) की है, अगर यह भाव बना लोगे तो निहाल हो जाओगे ।

मैं यह नहीं कहता कि सब छोड़ दो, साधु हो जाओ, त्यागी हो जाओ, किन्तु आप जहाँ हैं, वहीं रहते हुए जिसके अभाव हो, उसको उतनी दे दो चुपचाप । लोगोंमें ढिंढोरा मत पिटाओ । किसीके ओषधिकी जरूरत हुई तो ओषधिका प्रबन्ध कर दिया । जिनके बालकोंकी पढ़ाई नहीं हो रही है, ऐसी गरीब विधवा माताएँ हैं, उनके बच्चेकी पढ़ाईका प्रबन्ध कर दो । कितना ? आपके बच्चोंकी पढ़ाईका प्रबन्ध करनेपर रुपये बचे तो, नहीं तो कोई परवाह नहीं । इस प्रकार देनेपर भी इनमें कोई अभिमानकी बात नहीं है; क्योंकि आपके पास जो बचा हुआ था, वह उसीका ही था, उसको दे करके समझो कि ऋण चूक गया आज । नहीं तो हमारेपर ऋण था, यह कर्जा था, कर्जा चूक गया । जिसने ले लिया, उसकी कृपा मानो कि मेरेको उऋण कर दिया, ऐसी कृपा मानो । यह बात बहुत सच्ची है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे