।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, शनिवार
मत्स्य-जयन्ती
 ‘है’ (परमात्म-तत्त्व) की ओर दृष्टि रखें


२०-३-८३                                         
भीनासर धोरा , बीकानेर

श्रीगीताजीमें आया है कि‒

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
                                                       (२ । १६)

सत्‌का अभाव नहीं होता और असत्‌की सत्ता नहीं होती । दोनोंका तत्त्व तत्त्वदर्शियोंने देखा है । सत्‌का अभाव नहीं होता । इधर थोड़ी दृष्टि डालें । सत् कहते हैं ‘है’ को, वह सब देशमें है, सब कालमें है, सम्पूर्ण वस्तुओंमें है, सम्पूर्ण शरीरोंमें है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें है । देश, काल, वस्तु व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, अवस्था और क्रिया‒ये तो हुए अलग-अलग; परन्तु हैतत्त्व अलग नहीं हुआ है । वह हैज्यों-का-त्यों ही है । वह किसी अवस्थामें तो हो और किसी अवस्थामें न हो, किसी घटनामें हो और किसी घटनामें न हो, किसी क्रियामें हो और किसी क्रियामें न हो, किसी वस्तुमें हो और किसी वस्तुमें न हो, किसी व्यक्तिमें हो और किसी व्यक्तिमें न हो‒ऐसा हो सकता है क्या ? उस हैका कभी भी और कहीं भी अभाव नहीं हो सकता । अवस्था, घटना, क्रिया, वस्तु और व्यक्ति सब बदलते हैं, इन सबका अभाव होता है ।

वह हैतत्त्व तो बदलनेवालोंकी सन्धिमें भी वैसे ही रहता है । जैसे‒समय चार बज गये, अब पाँच बजना शुरू हो गया, मानो चौथा घंटा समाप्त हो गया और पाँचवाँ घंटा शुरू हो गया, पर हैजैसा चौथे घंटेमें था, वैसा ही पाँचवें घण्टेमें रहेगा । एक घण्टा समाप्त होकर दूसरा घंटा शुरू होगा । दोनोंकी संन्धिमें हैवैसा-का-वैसा ही रहेगा । वस्तुओंका आपसमें भेद होगा । पर सत्‌में भेद नहीं होगा । एक शरीर है और दूजा शरीर है, दोनों शरीरोंका अलगाव होगा । उन दोनोंकी सन्धि होगी; परन्तु सत् तो ऐसा ही रहेगा । क्रिया, घटना, देश, काल, वस्तु व्यक्ति आदिका परिवर्तन हुआ । मानो पहले जैसे थी, उसकी अपेक्षा अब और तरहकी ही होगी । उनकी सन्धि भी होगी । आरम्भ भी होगा और समाप्ति भी होगी, पर सत्का न तो आरम्भ है, न अभाव है, न सन्धि है । वह तो ज्यों-का-त्यों रहेगा । इसकी तरफ दृष्टि डालनेमें क्या जोर आवे बताओ ?

केवल सत्‌की तरफ ध्यान देना है, सत्‌की तरफ लक्ष्य करना है । जैसे, हम यहाँ बैठे हैं तो यहाँका ही लक्ष्य है । अब इसको याद रखनेकी जरूरत नहीं पड़ती । ऐसे ही जो सत् सबमें परिपूर्ण है, उसको याद क्या रखें ? याद रखना तो एक क्रिया होगी । याद करनेपर फिर भूलना हो सकता है । याद और भूलके बीच सन्धि होगी; परन्तु सत्में सन्धि नहीं होगी, क्योंकि सत्याद करनेमें भी है और भूलमें भी है । अपनी जानकारीमें भी है और अनजानपनेमें भी है । जाग्रत्‌में भी है, स्वप्नमें भी है, सुषुप्तिमें भी है । कोई बात याद आयी तो भी है, नहीं याद आयी तो भी है । वह तो हैज्यों-का-त्यों रहेगा । केवल उधर खयाल हो जाय कि ऐसे एक परमात्म-तत्त्व है । इतना खयाल हो गया, अब इसकी विस्मृति कैसे होगी ? इसकी भूल कैसे होगी ? भूलको भी वह प्रकाशित करता है, प्रकाशको भी, ज्ञानको भी, यादगिरीको भी प्रकाशित करता है । वहतो है ज्यों-का-त्यों ही रहता है । इसीको बोध कहते हैं । इसको ही ज्ञान कहते हैं इसको ही जीवन्मुक्ति कहते हैं, इसका नाम ही तत्त्वज्ञान है । ऊँची-से-ऊँची बात यही है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे