।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
अधिकार संसारपर नहीं, परमात्मापर



हम सबका परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें अधिकार है । संसारकी वस्तुओंपर हमारा अधिकार नहीं है । परिवार, कुटुम्ब, जमीन, जायदाद, शरीर, इन्द्रियाँ मन, बुद्धि, प्राण‒इनपर हमारा अधिकार नहीं है ।

गीताजीमें भगवान् कहते है‒

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
                                                     (१५ । ७)

और गोस्वामीजी महाराजकी वाणीमें भी आता है‒

ईस्वर अंस  जीव  अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

इस प्रकार भगवान् और भक्त दोनों जीवको ईश्वरका अंश मानते है । वास्तवमें देखा जाय तो ये दो ही अर्थात् भगवान् और उनके भक्त ही बिना स्वार्थके प्रीति करनेवाले है । अन्य तो सब स्वार्थवश प्रीति करते है ।

हेतु रहति जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक  असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं ।
सपनेहुँ प्रभु  परमारथ  नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करैं  सब प्रीती ॥

जीवात्मा भगवान्‌का अंश होनेके कारण हमारा अधिकार भगवान्‌पर चल सकता है । परन्तु प्रकृति और प्रकृतिके पदार्थोंपर अधिकार नहीं चल सकता । इन्हें प्राप्त करनेके लिये योग्यता, समय, परिश्रम, बल, बुद्धि, विद्या आदि चाहिये । जैसी-जैसी योग्यता होगी, वैसे-वैसे अधिकार प्राप्त होंगे । परन्तु भगवान्‌की प्राप्तिमें किसी योग्यता, बल, बुद्धि, विद्या आदिकी आवश्यकता नहीं है । बच्चा दूसरी किसी वस्तुपर अधिकार जमा ले तो उसके हाथमें नहीं है । परन्तु वह अपनी माँपर तो अधिकार जमा ही सकता है । बालक स्वाभाविक ही माँकी गोद चढ़ जाता है और बड़ा भाई गोदमें हाथ भी रख देता है तो उस हाथको हटा देता है कि मेरी माँ है तू मेरे हुक्म बिना हाथ कैसे रख सकता है । ऐसे ही भक्त कहता है‒‘ना मैं देखूँ और को, ना तोय देखन देऊँ’‒भगवन् ! मैं औरकी तरफ देखूँगा नहीं और आपको भी और तरफ देखने नहीं दूँगा ।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
                                                   (गीता ४ । ११)

भगवान् कहते हैं कि जो मुझे जैसे भजता है, मैं भी उसे वैसे ही भजता हूँ । अतः भगवान् हमारे हैं और हम भगवान्‌के हैं । हम भगवान्‌से कभी वियुक्त हो नहीं सकते, बिछुड़ नहीं सकते । परन्तु संसार हमसे प्रतिक्षण वियुक्त हो रहा है । यदि संसार, शरीर, इन्द्रियाँ मन, धन-सम्पत्ति आदि अपने हैं तो शरीर, इन्द्रियोंको दुर्बल मत होने दो, भोगोंमें मत फँसने दो, मनको इधर-उधर मत जाने दो, करोड़पति, अरबपति बन जाओ । तो कहते हैं यह हाथकी बात नहीं है ।

भगवान् हमारे हैं और हम भगवान्‌के हैं । चाहे कपूत(कुपुत्र) हों या सपूत (सुपुत्र) । कपूतपना क्या है ? संसारको अपना मानना कपूतपना है । सपूतपना क्या है ? भगवान्‌को अपना मानना और संसारको अपना न मानना सपूतपना है । इस वास्ते भगवान्‌ने अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा भजनेकी बात कही‒

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
                                             (गीता १४ । २६)

अव्यभिचारिणी भक्ति क्या ? संसार अपना नहीं है, मैं संसारके साथ नहीं हूँ । और संसारको अपना मानना व्यभिचार है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे