।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७३, बुधवार
आद्य जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य-जयन्ती
अधिकार संसारपर नहीं, परमात्मापर



(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपना संसार नहीं, अपने तो भगवान् हैं । भगवान्‌की प्राप्तिको असम्भव या कठिन मानना गलती है । इसमें बाधा है धन तथा पदाथकि संग्रहकी तथा सुख-भोगकी चाहना‒यह माया है । इस मायामें यह तोते और बन्दरकी तरह बँधा हुआ है‒

सो माया बस भयउ गोसाईं ।
बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥

एक तोता पकड़नेवाला जंगलमें तोता पकड़ता था । उसने एक पानीकी गहरी कुण्डी बनायी थी । उसपर आड़ी लकड़ी रखी हुई थी । उसपर ज्यों ही तोता बैठे कि उलटा हो जाय । अब नीचे देखे तो पानी और चारों ओर दीवाल । उसे लगता है कि फँस गया । उस लकड़ीको वह तोता छोड़ता नहीं । इतनेमें आकर तोता पकड़नेवाला उसे पकड़ लेता है । यह दृश्य देखकर एक सन्तको दया आ गयी तो उन्होंने एक तोता लिया और उसे पढ़ाया‒देखो तोता, जहाँ जलकी ऐसी कुण्डी हो, वहाँ नहीं जाना । तो तोतेने भी ऐसा ही याद करके कह दिया । फिर सन्तने कहा कि बीच डंडेपर मत बैठना । तोतेने यह भी याद कर लिया । फिर सन्तने कहा कि बैठ जाओ तो उड़ जाना । तोतेने भी वैसा कह दिया । लटक जाओ तो भी उड़ जाना, बन्धन नहीं होगा । तोतेने वह भी वैसा ही कह दिया । सन्तने ऐसा सिखाकर तोतेको छोड़ दिया । उस तोतेने और कई दूसरे तोतोंको भी यह पढ़ा दिया । सन्तने देखा कि अब तोते नहीं फँसेंगे । फिर एक दिन तोता पकड़नेवालेने जलकी कुण्डी रखी तो तोता वहाँ डंडापर बैठ गया । ‘जलकी कुण्डीपर नहीं बैठना है’ ऐसा मुँहसे सारी बात कहते-कहते तोता पकड़ लिया गया ।

इसी प्रकार हम लोग भी सन्तकी बतायी हुई बात सुनकर मुखसे कहते रहते हैं; परन्तु आचरण नहीं करते ।

ऐसे ही बन्दरको पकड़नेवाले छोटे मुँहके घड़ेमें चने रख देते हैं । बन्दर आता है और दोनों हाथ घड़ेमें डालकर चनोंसे मुट्ठी भर लेता है । बँधी हुई मुट्ठी वह घड़ेके छोटे मुँहसे बाहर नहीं निकाल सकता और चने छोड़ना भी नहीं चाहता । इस प्रकार बन्दर और तोता दोनों खाने-पीनेमें बँधते हैं । ऐसे ही हम लोगोंकी, पढ़े-लिखोंकी दशा है कि हम भी यह बोलते रहते हैं कि‒

ईस्वर अंस  जीव  अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
सो माया  बस भयउ  गोसाईं । बँध्यो  कीर  मरकट  की नाई ॥

बातें बना लेंगे । बातें सुनाना सीख लेंगे । परन्तु स्वयं आचरण नहीं करेंगे ।

परोपदेशबेलायां सर्वे शिष्टा भवन्ति हि ।

दूसरोंको उपदेश देना होता है तो सब विद्वान् बन जाते हैं ।

विस्मरन्ति तत्सर्वं स्वकायें समुपस्थिते ॥
अपना काम सामने आता है तो याद नहीं रहती, भूल जाते हैं ।

जब कोई दूसरा मर जाता है तो वह धीरज बँधाते हैं कि संसार अनित्य है । यहाँ सब नाशवान् हैं । प्रभुकी ऐसी ही मर्जी थी । अतः रोओ मत । परन्तु अपना कोई मर जाता है तो रोते हैं ।

पर उपदेस कुसल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥

अतः हमारे भगवान् हैं और हम भगवान्‌के हैं, यह उपदेश हमें देना नहीं है । अपितु लेना है । भगवान्‌से अपनेपनमें हताश होनेकी किंचिन्मात्र, कहीं भी आवश्यकता नहीं है । सांसारिक आशाएँ किसीकी भी आज दिनतक पूरी हुई नहीं और परमात्मप्राप्तिकी आशा आज दिनतक किसीकी बाकी रही नहीं । परन्तु संसारसे तो रखी आशा और भगवान्‌से रहे निराश, यह गलती की । अतः आज अबहीसे स्वीकार कर लें कि भगवान् हमारे हैं । उनपर हमारा पूरा अधिकार है । और संसार हमारा नहीं है । हमारा संसारपर अधिकार नहीं है । यह बहुत बढ़िया सार बात है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे