।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७३, शनिवार
मनकी खटपट कैसे मिटे ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
अब कहते हैं कि ‘हम अभी तो जानते हैं, पर जिस समय अनुकूलता-प्रतिकूलता आती है, उस समय पता नहीं लगता । हम तो मिल जाते हैं । मिल जानेंपर पीछे पता लगता है कि मिल गये ।’ तो पीछे पता लगते ही यह विचार करो कि हम उस समय भी मिले नहीं थे, केवल मिला हुआ मान लिया था । वह हमारे साथ नहीं है, हम उससे अलग हैं, ऐसा सोचकर चुप हो जाओ । बस, वह मिट जायगी । मिलनेका जो सुख-दुःख है, उसको आदर देनेसे ही आपके खटपट मिटती नहीं है । उसको आदर मत दो । कह दो कि हम तो मिले ही नहीं । फिर मिट जायगी । जब ख्याल आये, तब अपने आपसे कहे कि नहीं-नहीं, हम नहीं मिले ।

जब खटपट होती है, अनुकूलता-प्रतिकूलता होती है, तब तो उसमें बह जाते हो और सुखी-दुःखी हो जाते हो । और फिर जब पता लगता है कि मैं मिल गया, तब चिन्ता करते हो कि हाय-हाय मैं उससे मिल गया ! तो जिस समय उससे मिलते हो, उस समय भी उससे मिलना कभी छोड़ते नहीं, और जिस समय उससे मिले नहीं, उस समय भी उसकी चिन्ता करते हो । यही बीमारी है, दोनों समय आप उसको पकड़ लेते हो । वास्तवमें आप उससे मुक्त तो आप-से-आप होते हैं । परिस्थिति, पदार्थ बेचारे तो आपको मुक्त कर रहे हैं, पर आप उनको पकड़ लेते हो कि हमारे खटपट रहती है, खटपट मिटती नहीं । इस तरह जिस समय खटपट नहीं होती, उस समय भी आप खटपटको पकड़े रहते हो । जब खटपट आती है, तब राग-द्वेष करके फँस जाते हो और जब नहीं आती, तब उसकी चिन्ता करके उसमें फँस जाते हो । तो ऐसा मत करो । ऐसा करके क्यों उसमें फँसो ?

भगवान् अर्जुनके रथ हाँकते हैं, उसका हुक्म मानते हैं । फिर भी भगवान्‌ने अर्जुनको फटकारा‒

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वव्युपपद्यते ।
क्षुद्रं  हृदयदौर्बल्यं   त्यक्त्वोत्तिष्ठ   परंतप ॥
                                            (गीता २ । ३)

‘हे अर्जुन ! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती । हे परंतप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर युद्धके लिये खड़ा हो जा ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे