।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
मोहिनी एकादशी-व्रत (सबका)
संसार ‘नहीं’ है और परमात्मा ‘है’



(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह नियम है कि हम जिसे सर्वोपरि और अपना मानते हैं उस तरफ स्वतः आकर्षण होता है, उसका भजन भी अपने-आप होने लगता है । भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं‒

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्‌भजति मां   सर्वभावेन भारत ॥
                                          (गीता १५ । ११)

‘हे भरतवशोद्‌भव अर्जुन ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्वसे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है ।’ जो पुरुष परमात्माको सर्वोत्तम जान लेता है, वही सर्वज्ञ है अर्थात् उसकी दृष्टिमें परमात्माके अतिरिक्त कुछ नहीं है । प्रायः लोग ‘परमात्मा है’ ऐसा मानते हुए भी नहीं मानते अर्थात् शास्त्र-विरुद्ध, लोकमर्यादा-विरुद्ध आचरण करते हुए डरते नहीं । जो सर्वत्र परमात्माकी सत्ता मानता है, उससे दोष-पाप हो ही कैसे सकते हैं ? और परमात्माको परम सुहद्, परम कृपालु माननेपर चिन्ता, भय, दीनता आदि आ ही नहीं सकते । काकभुसुंडिजीको शाप मिलनेपर भी ‘नहि कछु भय न दीनता आई ।’

चिन्ता दीनदयालको मो मन सदा अनन्द ।
जायो सो प्रतिपालसी ‘रामदास’ गोविन्द ॥

ऐसे अवसरपर साधकको सावधान रहना चाहिये अर्थात् ऐसी विपरीत धारणा कभी नहीं करनी चाहिये कि भय, चिन्ता, शोक आ गये तो मैंने परमात्माको माना ही नहीं, बल्कि यह कसौटी करनी चाहिये कि परमात्माके रहते हुए भय, चिन्ता, शोक मेरेमें कैसे आ सकते हैं ?

परमात्मा है‒इस तत्त्वका ठीक अनुभव न होनेपर तथा संसार है‒इस मान्यताके न मिटनेपर ऐसी एक तीव्र व्याकुलता होनी चाहिये, जिससे परमात्मा और संसार दोंनोंका तत्त्वबोध हो जाय । संसार दिखायी देते हुए भी ‘नहीं है’ और ‘हमारा नहीं है’ । परमात्मा दिखायी नहीं देते हुए भी ‘है’ और ‘हमारे हैं’ । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सांसारिक वस्तुओंसे ही संसार दीखता है, क्योंकि जिस धातुका संसार है, उसी धातुके मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ हैं‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५ । ७) मनसहित पाँचों इन्द्रियाँ प्रकृति (संसार) में स्थित हैं । हमारा स्वरूप (आत्मा) और परमात्मा (है) दोनों एक ही तत्त्व हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।’ (गीता १५ । ७) ‘इस देहमें यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है ।’ अतएव यदि हम अपनी सत्ता  (स्वरूप) में स्थित हो जायँ तो अभी परमात्मा दीखने लगेंगे । संसारके अंशसे संसार दीखता है और परमात्माके अंशसे परमात्मा दीखते हैं । जबतक हमारी स्थिति ‘नहीं’ (संसार) में रहेगी, तबतक परमात्मा (सर्वत्र होते हुए भी) नहीं दिखायी देंगे, परन्तु स्थिति जब ‘है’ (परमात्मा) में हो जायगी तब परमात्मा ही दिखायी देंगे । अतएव हमें आज‒अभीसे ही दृढ़तापूर्वक यह मान लेना चाहिये कि परमात्मा हैं, सर्वत्र परिपूर्ण है और हमारे अपने है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे