प्रश्न‒भीतर
यह बात बठी हुई है कि पुरुषार्थसे कुछ नहीं होता । जो होता है, प्रारब्धसे
ही होता है । क्या यह ठीक है ?
स्वामीजी‒अपने पुरुषार्थसे कुछ नहीं होता । पुरुषार्थ छोड़ते ही प्रभु-कृपासे काम होता हैं
। उसको प्रभु-कृपा न मानकर पुरुषार्थ मानना भूल है ! अपना पुरुषार्थ सर्वथा छोड़ना ‘शरणागति’
है ।
ज्ञानकी दृष्टिसे ‘कुछ न करना’
ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है । ‘करने’
से प्रकृतिमें स्थिति होती है और ‘न करने’ से परमात्मतत्त्वमें
स्थिति होती हे । ‘करने’ से परमात्मतत्त्व मिलेगा‒यह भाव देहाभिमान पुष्ट करनेवाला है । आदि- अन्तवाले
कर्मोंका फल अनन्त कैसे ही सकता है ?
प्रारब्धका फल भोग है, कर्म नहीं । यदि कर्मका फल भी कर्म होगा तो कर्मोंका अन्त कभी आयेगा ही नहीं,
कर्म-बन्धनसे मुक्ति होगी ही नहीं‒यह ‘अनवस्था दोष’
आयेगा । पुरुषार्थसे प्रारब्ध बनता है, पर प्रारब्धसे पुरुषार्थ
नहीं बनता । हमारा प्रश्न है कि यदि सब कर्म प्रारब्धसे होते हैं तो प्रारब्ध कहाँसे
होता है ? प्रारब्ध तो क्रियमाण-कर्मका अंश है,
फिर वह क्रियमाण-कर्म कैसे करेगा ?
प्रश्न‒भोजन
किया तो भूख मिटना फल हुआ । फिर शौच गये तो यह ‘कर्मका फल भी कर्म’ हुआ
?
स्वामीजी‒शौच जाना कर्म नहीं है; क्योंकि इसमें कर्तृत्व नहीं है । भोजनके पचनेकी तरह शौच जाना
एक चेष्टा है, कर्म नहीं । कर्मका फल कभी कर्म होता ही नहीं, प्रत्युत भोग
होता है ।
क्रियमाण-कर्मके फल-अंशके दो भेद हैं‒दृष्ट और अदृष्ट । इनमेंसे
दृष्टके भी दो भेद होते हैं‒तात्कालिक और कालान्तरिक । भोजन करते समय तृप्ति होना ‘तात्कालिक’
फल है और परिणाममें शौच होना,
बल बढ़ना आदि ‘कालान्तरिक’
फल हैं ।
स्वामीजी‒तीव्र जिज्ञासा होनेपर प्रतिबन्धक मिट जात हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
[*] वेदान्तमें ज्ञानके चार प्रतिबन्धक बताये गये हैं‒(१) संशय (प्रमाणगत ओर प्रमेयगत),
(२) विपरीत भावना, (३) असम्भावना और (४) विषयासक्ति ।
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