।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
तात्त्विक प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒क्या पुण्यकर्मों (प्रारब्ध)-के बिना भी सन्त मिल सकत हैं ?

स्वामीजीमिल सकते हैं । सन्त प्रारब्धसे भी मिलत हैं‒‘पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता’, भगवत्कृपासे भी मिलत हैं‒‘जब द्रवै दीनदयालु राघव साधु संगति पाइये’ और उत्कट अभिलाषासे भी मिलते हैं‒‘जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥’ इनमें उत्कट अभिलाषा मुख्य है ।

प्रश्नचुप साधनमें उपेक्षा कौन करेगा ?

स्वामीजीउपेक्षा स्वयं करेगा, जो कर्ता है अर्थात् जिसमे कर्तृत्व है । सिद्ध होनपर वह स्वभाव बन जायगा, उसका आग्रह नहीं रहेगा ।

प्रश्नउपेक्षा अथवा साक्षीका भाव रहेगा तो बुद्धिमें ही ?

स्वामीजीभाव तो बुद्धिमें रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयं (स्वरूप)-में होगा, जैसे‒युद्ध सेना करती है, पर विजय राजाकी होती है । उपेक्षा एवं उदासीनतासे जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है ।

प्रश्नउपयुक्त वस्त्र रहते हुए भी ठण्ड सहनेका अध्यास करनेसे अहंकार आयेगा कि नहीं ?

स्वामीजीमैं ठण्ड सह सकता हूँ’‒इस तरह अपनी सामर्थ्यका अभिमान आ सकता है । तपस्यासे अभिमान आता है, कल्याण नहीं होता । तपस्या शक्ति पैदा करती है, कल्याण नहीं करती । अभ्यास भी अवस्था पैदा करता है, कल्याण नहीं करता ।

प्रश्नकभी सर्वात्मभाव, कभी साक्षीभाव, कभी सृष्टिके मिथ्या होनका भाव स्वतः आता है, प्रयास नहीं करते । गलती कहाँ है ?

स्वामीजीपहलेके अभ्याससे ये संस्कार आते हैं । जब इनसे राग या द्वेष करते हैं, तब इनसे सम्बन्ध जुड़ जाता है‒यही गलती होती है ।

प्रश्नआश्रम होनेसे विचार करना पड़ता है, पर चिन्ता या वासना नहीं व्यापती । गलती कहाँ है ?

स्वामीजीआश्रमकी व्यवस्थाका विचार करना तो स्वाँग है । अपना स्वाँग ठीक रीतिसे करना चाहिये ।

प्रश्नपूर्णरूपेण प्रभुको सर्वस्व अर्पण करनेके बाद संस्कारवश निषिद्ध कर्म हो सकता हैं क्या ?

स्वामीजीनहीं हो सकता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे