(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒क्या
पुण्यकर्मों (प्रारब्ध)-के
बिना भी सन्त मिल सकत हैं ?
स्वामीजी‒मिल सकते हैं ।
सन्त प्रारब्धसे भी मिलत हैं‒‘पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता’,
भगवत्कृपासे भी मिलत हैं‒‘जब द्रवै
दीनदयालु राघव साधु संगति पाइये’
और उत्कट अभिलाषासे भी मिलते हैं‒‘जेहि
कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥’
इनमें उत्कट अभिलाषा मुख्य है ।
प्रश्न‒चुप
साधनमें उपेक्षा कौन करेगा ?
स्वामीजी‒उपेक्षा स्वयं
करेगा, जो कर्ता है अर्थात् जिसमे कर्तृत्व है । सिद्ध होनपर वह स्वभाव
बन जायगा, उसका आग्रह नहीं रहेगा ।
प्रश्न‒उपेक्षा
अथवा साक्षीका भाव रहेगा तो बुद्धिमें ही ?
स्वामीजी‒भाव तो बुद्धिमें
रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयं (स्वरूप)-में होगा, जैसे‒युद्ध सेना करती है, पर विजय
राजाकी होती है । उपेक्षा एवं उदासीनतासे जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है ।
प्रश्न‒उपयुक्त
वस्त्र रहते हुए भी ठण्ड सहनेका अध्यास करनेसे अहंकार आयेगा कि नहीं ?
स्वामीजी‒‘मैं ठण्ड सह सकता हूँ’‒इस तरह अपनी सामर्थ्यका अभिमान आ सकता
है । तपस्यासे अभिमान आता है, कल्याण नहीं होता । तपस्या शक्ति पैदा करती है, कल्याण
नहीं करती । अभ्यास भी अवस्था पैदा करता है, कल्याण नहीं करता ।
प्रश्न‒कभी
सर्वात्मभाव, कभी साक्षीभाव, कभी
सृष्टिके मिथ्या होनका भाव स्वतः आता है, प्रयास
नहीं करते । गलती कहाँ है ?
स्वामीजी‒पहलेके अभ्याससे
ये संस्कार आते हैं । जब इनसे राग या द्वेष करते हैं, तब इनसे सम्बन्ध
जुड़ जाता है‒यही गलती होती है ।
प्रश्न‒आश्रम
होनेसे विचार करना पड़ता है, पर चिन्ता या वासना नहीं व्यापती । गलती कहाँ है ?
स्वामीजी‒आश्रमकी व्यवस्थाका
विचार करना तो स्वाँग है । अपना स्वाँग ठीक रीतिसे करना चाहिये ।
प्रश्न‒पूर्णरूपेण
प्रभुको सर्वस्व अर्पण करनेके बाद संस्कारवश निषिद्ध कर्म हो सकता हैं क्या ?
स्वामीजी‒नहीं हो सकता ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
|