।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख पूर्णिमा, वि.सं.२०७३, शनिवार
श्रीबुद्ध-जयन्ती, वैशाख-स्नान समाप्त
तात्त्विक प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नगीतामें आया है‒‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९), ‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) आदि । पूर्ण सत्य क्या है ?

स्वामीजीभक्तिकी दृष्टिसे कहा है‒‘सदसच्चाहम्’ (सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ) । ज्ञानकी दृष्टिसे कहा है‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (उसे न सत् कहा जा सकता है, न असत्) । सभी बातें ठीक है । सबका तात्पर्य यही है कि एक परमात्मा ही हैं, असत् है ही नहीं ।

प्रश्ननामकी शक्ति तो सभी युगोंमें हैं, फिर चैतन्य महाप्रभुके इस कथनका क्या तात्पर्य है कि भगवान्‌ने कलियुगमें अपने नाममें सब शक्ति भर दी ?

स्वामीजीउनके कथनका तात्पर्य है कि कलियुगमें केवल नाम-जपसे ही सब हो जायगा ।

प्रश्नरामायणके काकभुशुण्डिजी भक्तिको सर्वोपरि कहते हैं और योगवासिष्ठके काकभुशुण्डिजी ज्ञानको सर्वोपरि कहते हैं, हम किसका मानें ?

स्वामीजीगहरा विचार करें ता तत्व एक ही है । दोनोंमें कोई फर्क नहीं है, केवल दृष्टिकोण (साधन-दृष्टि)-का भेद है‒‘भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥’ (मानस, उत्तर ११५ । ७)

‘प्रेम भगति जल बिनु रघुराई‒प्रेमके बिना ज्ञान रूखा, कठोर होता है । प्रेमके बिना ज्ञान शून्यतामें चला जाता है और ज्ञानके बिना प्रेम आसक्तिमें चला जाता है ।

प्रश्नजीवन्मुक्त यदि व्यवहारमें उतरे तो क्या अहंकार अनिवार्य है ?

स्वामीजीनहीं । उसके द्वारा अहंकाररहित ‘क्रिया’ होती है, अहंकारयुक्त ‘कर्म’ नहीं होता‒‘क्षीयन्ते  चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे’ (मुण्डक २ । २ । ८)

प्रश्नभगवान्‌के अवतारी शरीरको ‘मायाकृत’ कहा गया है; अतः अवतारी शरीर प्राकृत हुआ ?

स्वामीजीवह माया है‒भगवान्‌की इच्छा‒‘निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार’ (मानस, बाल १९२), ‘अवतीर्णोऽसि भगवन् स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः’ (श्रीमद्भा ११ । ११ । २८)

अवतारी शरीर प्राकृत (पांचभौतिक) नहीं है‒‘प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया’ ( गीता ४ । ६), ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४ । ९), ‘चिदानंदमय देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी ॥’ (मानस, अयोघ्या १२७ । ३)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे