(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒गीतामें
आया है‒‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९), ‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) आदि । पूर्ण सत्य
क्या है ?
स्वामीजी‒भक्तिकी दृष्टिसे
कहा है‒‘सदसच्चाहम्’
(सत् भी मैं हूँ और असत् भी
मैं हूँ) । ज्ञानकी दृष्टिसे कहा है‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’
(उसे न सत् कहा जा सकता है,
न असत्) । सभी बातें ठीक है । सबका तात्पर्य यही है कि एक परमात्मा
ही हैं, असत् है ही नहीं ।
प्रश्न‒नामकी
शक्ति तो सभी युगोंमें हैं, फिर
चैतन्य महाप्रभुके इस कथनका क्या तात्पर्य है कि भगवान्ने कलियुगमें अपने नाममें सब
शक्ति भर दी ?
स्वामीजी‒उनके कथनका तात्पर्य
है कि कलियुगमें केवल नाम-जपसे ही सब हो जायगा ।
प्रश्न‒रामायणके
काकभुशुण्डिजी भक्तिको सर्वोपरि कहते हैं और योगवासिष्ठके काकभुशुण्डिजी ज्ञानको सर्वोपरि
कहते हैं, हम किसका मानें ?
स्वामीजी‒गहरा विचार करें
ता तत्व एक ही है । दोनोंमें कोई फर्क नहीं है,
केवल दृष्टिकोण (साधन-दृष्टि)-का भेद है‒‘भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा, उभय
हरहिं भव संभव खेदा ॥’ (मानस,
उत्तर॰ ११५ । ७)
‘प्रेम भगति जल बिनु रघुराई॰’‒प्रेमके बिना ज्ञान रूखा, कठोर होता है । प्रेमके बिना ज्ञान शून्यतामें चला जाता
है और ज्ञानके बिना प्रेम आसक्तिमें चला जाता है ।
प्रश्न‒जीवन्मुक्त
यदि व्यवहारमें उतरे तो क्या अहंकार अनिवार्य
है ?
स्वामीजी‒नहीं । उसके द्वारा
अहंकाररहित ‘क्रिया’ होती है, अहंकारयुक्त ‘कर्म’
नहीं होता‒‘क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे’ (मुण्डक॰ २ । २ । ८) ।
प्रश्न‒भगवान्के
अवतारी शरीरको ‘मायाकृत’ कहा
गया है; अतः अवतारी शरीर प्राकृत हुआ ?
स्वामीजी‒वह माया है‒भगवान्की
इच्छा‒‘निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार’ (मानस,
बाल॰ १९२), ‘अवतीर्णोऽसि भगवन् स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः’ (श्रीमद्भा॰ ११ । ११ । २८) ।
अवतारी शरीर प्राकृत (पांचभौतिक) नहीं है‒‘प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया’ ( गीता
४ । ६), ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४ । ९), ‘चिदानंदमय
देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी ॥’ (मानस, अयोघ्या॰ १२७ । ३)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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