(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒तैत्तिरीयमें
तपसे ब्रह्मको जाननेकी बात आयी है, फिर
तपसे शक्ति पैदा होती है, कल्याण
नहीं होता‒इसका तात्पर्य ?
स्वामीजी‒तपसे तत्त्वज्ञान
परम्परासे हो सकता है, साक्षात् नहीं । वेदान्तमें ज्ञानप्राप्तिके आठ अंतरंग साधन
बताय हैं‒विवेक, वैराग्य, शमादि षट्सम्पत्ति,
मुमुक्षुता, श्रवण,
मनन, निदिध्यासन और तत्त्वपदार्थसंशोधन । तप अंतरंग साधन नहीं है,
प्रत्युत बहिरंग साधन है ।
‘ज्ञान’ को भी तप माना गया है,
जिससे तत्त्वप्राप्ति होती है–‘बहवो
ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः’
(गीता ४ । १०) । शरीरकी तपस्यासे तत्त्वप्राप्ति नहीं होती ।
प्रश्न‒वेदोंमें, शास्त्रोंमें
जगह-जगह विविधता, विपरीतता दीखती है, जिससे
गलत धारणा बन सकती है ?
स्वामीजी‒गइराईमे विचार
करना चाहिये कि कहाँ क्या कहा गया है और क्यों कहा गया है । शास्त्रोंका सिद्धान्त
समझना मामूली बात नहीं है । गहराईसे विचार करें तो अनेकतामें एकता और एकतामें अनेकता
दीखती है । गीतामें इस शास्त्रीय जालको साधकके लिये बाधक बताया गया है‒‘श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला’ (२ ।
५३) ।
प्रश्न‒आपने
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगको
स्वतन्त्र साधन भी कहा है और यह भी कहा है कि कर्मयोग और ज्ञानयोग तो साधन हैं, पर
भक्तियोग साध्य है‒यह भेद किस दृष्टिसे है ?
स्वामीजी‒दोनों ही बातें
ठीक हैं । यह साधककी इच्छापर है कि वह किसको माने । गहरा विचार करनेपर कर्मयोग और ज्ञानयोग
(लौकिक निष्ठा) साधन सिद्ध होते हैं । गीता और भागवतमें भी ऐसा ही आया है ।
प्रश्न‒ज्ञानीको
शाप-वरदान लगतें हैं क्या ?
स्वामीजी‒शाप-वरदान अज्ञान
होनपर लगते हैं । बोध हानेपर जीवन्मुक्तको शाप-वरदान नहीं लगते । जैसे, नारदजीने भगवान्को
शाप दिया तो भगवान्ने कहा‒‘मम इच्छा कह दीनदयाला’ (मानस,
बाल॰ १३८ । २) । भगवान् श्रीकृष्णने
उत्तंक ऋषिसे कहा कि तुम मुझे शाप दोगे तो मुझे तो शाप लगेगा नहीं,
पर तुम्हारी तपस्या क्षीण हो जायगी (महाभारत, आश्व॰ ५३ । २४‒२६) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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