(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒तत्-त्वम्का
शोध करते हुए आचार्योंने ईश्वरकी उपाधि मानी
है । जीवकी अविद्या उपाधि है । दोनों उपाधियाँ मिथ्या हैं । उपाधि मिटते ही न ईश्वर
रहता है, न जीव, केवल
ब्रह्म रह जाता है । फिर ब्रह्म समग्रके अन्तर्गत कैसे ?
स्वामीजी‒यह एक मतकी बात
है । गीता इसे नहीं मानती । गीता जीवको ईश्वरका अंश मानती है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (१५ ।
७) । अपने अद्वैत सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिये ही दूसरे सिद्धान्तको, ईश्वरको
कल्पित कहा गया है । वास्तवमें ईश्वर कल्पित नहीं है ।
प्रश्न‒समग्र
क्या है ? समग्र तो मिथ्या
है, फिर उसके अन्तर्गत
ब्रह्म कैसे ?
स्वामीजी‒अपनी बात लोगोंको
समझानेके लिये शब्दोंका सहारा लेना ही पड़ता है ! हमें गीतासे ‘समग्र’
शब्द मिला । गीतामें भगवान्न कहा है‒‘असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु’ (७ ।
१) अर्थात् तू मेरे समग्ररूपको
निःसन्देह जिस प्रकारसे जानेगा, उसको सुन । ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव
और अधियज्ञ (गीता ७ । २९-३०) । इसी समग्ररूपके अन्तर्गत ब्रह्म है ।
सगुण-साकार, सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकारमें भेद नहीं है‒यही
समग्ररूप है । ‘ब्रह्म’ केवल निर्गुण-निराकार होता हैं, इसलिये उसके अन्तर्गत सगुण-साकार
नहीं आ सकता । परन्तु समग्रके अन्तर्गत तीनों आ जाते हैं । श्रीमद्भागवतमें भी ब्रह्म
(निर्गण-निराकार), परमात्मा (सगुण-निराकार) और भगवान् (सगुण-साकार)‒तीनोंका एक बताया
है‒
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्धते ॥
(१
। २ । ११)
समग्र मिथ्या है‒यह बात साधकक लिये है; क्योंकि जगत्को जीव
ही धारण करता है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता
७ । ५) । जगत् जीव अथवा
साधककी दृष्टिमें है, महात्मा या भगवान्की दृष्टिमें नहीं । मिथ्या इसलिये कहा है
कि साधककी दृष्टि उधर न जाय । वास्तवमें एक चिन्मय तत्व ही है ।
लोगोंको उसी भाषामें समझाया जाता है,
जहाँ वे स्थित हैं । लोगोंकी दृष्टिमें ‘सर्वम्’
की सत्ता है, तभी कहना पड़ता है‒‘वासुदेवः सर्वम्’,
अन्यथा केवल ‘वासुदेव’
ही है, ‘सर्वम्’ है ही नहीं । ‘वासुदेव’
सच्चा है, ‘सर्वम्’ मिथ्या है । इसी तरह लोगोंकी बुद्धिमें ‘समग्र’
बैठा हुआ है, तभी हम कहत हैं कि
परमात्मा समग्र हैं । असली तत्वमें
शब्द नहीं है, प्रश्न और उत्तर भी नहीं है, प्रत्युत मौन है !
समग्र मिथ्या है‒यह भी साधन है और समग्र परमात्मा है‒यह भी साधन
है । परन्तु समग्र (सब कुछ) परमात्मा है‒यह साधन सब साधनोंसे
तेज है ।
द्वैतवाद, अद्वैतवाद,
अजातवाद आदि सब साधन हैं,
सिद्धान्त नहीं हैं । सिद्धान्त है‒‘वासुदेवः सर्वम् ।’ सिद्धान्तको न माननेसे ही आपसमें मतभेद होते हैं,
खटपट होती है ।
एक साधन-तत्त्व होता है,
एक साध्य होता है । सब साधन मिलकर साधन-तत्त्व होता है । साध्य
‘समग्र’ है, जिसमें मतभेद नहीं है ।
वेदान्तके ग्रन्थ ज्ञानयोगको मुख्य मानते हैं और कर्मयोग एवं
भक्तियोगको सहायक साधन (मल-विक्षेप दोष दूर करनेवाले) मानते हैं । परन्तु गीता कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनोंको स्वतन्त्र साधन मानती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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