(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒जीव
(अध्यात्म) मिथ्या है ?
स्वामीजी‒अद्वैत वेदान्त
भी जीवको मिथ्या नहीं मानता, प्रत्युत जीवकी उपाधि (जीवपना)-को मिथ्या मानता है । यदि
जीव मिथ्या है तो ब्रह्मानन्दका सुख कौन भोगेगा ?
मुक्ति किसकी होगी ?
मुक्ति होनेपर यदि जीव मिट जाय तो मुक्ति अर्थात् अपना विनाश
कौन चाहेगा ? अतः जीवपना मिथ्या है, जीव नहीं । जीव तो भगवान्का अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता
१५ । ७) ।
प्रश्न‒आपने
पुस्तकमें लिखा है कि परमात्माके सिवाय सृष्टिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है ?
स्वामीजी‒ठीक बात है । इसमें
शंका क्या है ? पुनः उसे पढ़कर समझनेकी चेष्टा करनी चाहिये । बात मूलमें एक ही
है, पर समझानेके अलग-अलग ढंग हैं ।
उदाहरणके लिये‒रस्सीमें साँप दीखनेसे जो लोग भयभीत हो जाते हैं,
उनके लिये कहते हैं कि ‘साँप नहीं है,
रस्सी है ।’ परन्तु जो लोग भयभीत नहीं होते,
उनके लिये केवल इतना ही कहते हैं कि ‘रस्सी है’
। दोनों बातोंमें काई फर्क नहीं है । इसी तरह जिनकी दृष्टिमें
संसारकी सत्ता है, उन रागयुक्त साधकोंके लिये कहते हैं कि ‘संसारकी स्वतन्त्र सत्ता
नहीं है, परमात्माकी ही सत्ता है’ । परन्तु जिनकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता नहीं है,
उन वीतराग साधकोंके लिये ‘केवल परमात्मा हैं’
इतना ही कहना पड़ता है ।
पहले भी कहा था, पुनः कहते हैं कि संसार मिथ्या है‒यह साधककी धारणासे है;
क्योंकि जड़ता (मिथ्यापना) हमारी ही बुद्धिमें हैं,
वास्तवमें है नहीं । जगत् जीवकी दृष्टिमें है । साधककी दृष्टिमें
‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’
है, पर सिद्धकी दृष्टिमें ‘सर्वं खल्विदं
ब्रह्म’ है ।
प्रश्न‒अध्यारोप-अपवादको
नहीं मानें, शुद्ध अजातवाद मानें
?
स्वामीजी‒संसार पहलेसे ही
अध्यारोपित है, केवल अपवाद ही करना है । अतः अध्यारोप करना ही गलत है । अजातवादको
मैं साधन मानता हूँ । यह केवल संसारकी आसक्ति मिटानेके काम आता है,
यह सिद्धान्त नहीं है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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