प्रश्न‒क्या
अहंता-ममता सर्वथा मिट सकती हैं ?
स्वामीजी‒हाँ, मिट सकती
हैं । अगर अहंता-ममता नहीं मिटती अथवा मिटनवाली नहीं होतीं तो भगवान् गीतामें अहंता-ममतासे
रहित होनेकी बात क्यों कहते ? भगवान् कहते है‒‘निर्ममो निरहङ्कारः
स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१), ‘निर्ममो
निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी’ (गीता १२ । १३), ‘अहङ्कारं........विमुच्य निर्ममः’ (गीता
१८ । ५३) । इससे सिद्ध होता
है कि मनुष्य अहंता-ममतासे रहित हो सकता है ।
वास्तवमें देखा जाय तो त्याग उसी वस्तुका होता है, जो पहलेसे
ही अपनी नहीं होती, प्रत्युत केवल अपनी मानी हुई होती है । अतः झूठी मान्यताका ही त्याग होता है । जो वस्तु वास्तवमें अपनी
होती है, उसका त्याग नहीं होता ।
स्वरूपमें अहंता-ममता नहीं हैं । प्रकृतिके कार्य शरीरादिके
साथ अपना सम्बन्ध माननेमे ही अहंता-ममता पैदा होती हैं ।
प्रश्न‒अहंता-ममता
तो अन्तःकरणके धर्म हैं, अतः इनको कैसे मिटाया जा सकता है ?
स्वामीजी‒अहंता-ममता अन्तःकरणके
धर्म नहीं हैं, प्रत्युत अन्तःकरणके (अज्ञानजनित) विकार हैं । जो धर्म होता
है, वह धर्मीके रहते हुए कभी मिटाया नहीं जा सकता । वह धर्मीमें एकरूप रहता है । यह
बात प्रत्यक्ष देखनेमें आती है कि किसीमें कम अभिमान होता है और किसीमें अधिक अभिमान
होता है अर्थात् अहंता-ममता कम-ज्यादा होते हैं;
परन्तु अन्तःकरण कम-ज्यादा नहीं होता । अतः अहंता-ममता अन्तःकरणके
धर्म कैसे ? अहंता-ममता आगन्तुक हैं; अतः ये कभी बढ़ जाते हैं,
कभी घट जाते हैं । आसुरी सम्पत्तिवाले मनुष्योंके अभिमान आदि
बहुत बढ़ जाते हैं और दैवी सम्पत्तिवाले मनुष्योंके अभिमान आदि बहुत कम हो जाते हैं
। तात्पर्य है कि अहंता-ममता अन्तःकरणके विकार हैं और इनको मिटाया जा सकता है ।
प्रश्न‒अहंता-ममताके
बिना व्यवहार कैसे होगा ?
स्वामीजी‒व्यवहारमें अहंता-ममता
कारण नहीं हैं, प्रत्युत नीति, धर्म, मर्यादा आदि कारण हैं । अहंता-ममता ज्यादा होनेसे व्यवहार बिगड़
जाता है । अहंता-ममताके बिना व्यवहार शुद्ध होता है । अहंता-ममतारहित
व्यक्तिके द्वारा आदर्श व्यवहार होता है । जो अहंता-ममताके वशीभूत होत हैं, उनके आचरण
मर्यादायुक्त, धर्मयुक्त नहीं होते ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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