।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
साधकोपयोगी प्रश्नोत्तर
(अहंता-ममताका त्याग)



प्रश्नक्या अहंता-ममता सर्वथा मिट सकती हैं ?

स्वामीजीहाँ, मिट सकती हैं । अगर अहंता-ममता नहीं मिटती अथवा मिटनवाली नहीं होतीं तो भगवान् गीतामें अहंता-ममतासे रहित होनेकी बात क्यों कहते ? भगवान्‌ कहते है‒‘निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१), ‘निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी’ (गीता १२ । १३), ‘अहङ्कारं........विमुच्य निर्ममः’ (गीता १८ । ५३) । इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य अहंता-ममतासे रहित हो सकता है ।

वास्तवमें देखा जाय तो त्याग उसी वस्तुका होता है, जो पहलेसे ही अपनी नहीं होती, प्रत्युत केवल अपनी मानी हुई होती है । अतः झूठी मान्यताका ही त्याग होता है । जो वस्तु वास्तवमें अपनी होती है, उसका त्याग नहीं होता ।

स्वरूपमें अहंता-ममता नहीं हैं । प्रकृतिके कार्य शरीरादिके साथ अपना सम्बन्ध माननेमे ही अहंता-ममता पैदा होती हैं ।

प्रश्नअहंता-ममता तो अन्तःकरणके धर्म हैं, अतः इनको कैसे मिटाया जा सकता है ?

स्वामीजीअहंता-ममता अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं, प्रत्युत अन्तःकरणके (अज्ञानजनित) विकार हैं । जो धर्म होता है, वह धर्मीके रहते हुए कभी मिटाया नहीं जा सकता । वह धर्मीमें एकरूप रहता है । यह बात प्रत्यक्ष देखनेमें आती है कि किसीमें कम अभिमान होता है और किसीमें अधिक अभिमान होता है अर्थात् अहंता-ममता कम-ज्यादा होते हैं; परन्तु अन्तःकरण कम-ज्यादा नहीं होता । अतः अहंता-ममता अन्तःकरणके धर्म कैसे ? अहंता-ममता आगन्तुक हैं; अतः ये कभी बढ़ जाते हैं, कभी घट जाते हैं । आसुरी सम्पत्तिवाले मनुष्योंके अभिमान आदि बहुत बढ़ जाते हैं और दैवी सम्पत्तिवाले मनुष्योंके अभिमान आदि बहुत कम हो जाते हैं । तात्पर्य है कि अहंता-ममता अन्तःकरणके विकार हैं और इनको मिटाया जा सकता है ।

प्रश्नअहंता-ममताके बिना व्यवहार कैसे होगा ?

स्वामीजीव्यवहारमें अहंता-ममता कारण नहीं हैं, प्रत्युत नीति, धर्म, मर्यादा आदि कारण हैं । अहंता-ममता ज्यादा होनेसे व्यवहार बिगड़ जाता है । अहंता-ममताके बिना व्यवहार शुद्ध होता है । अहंता-ममतारहित व्यक्तिके द्वारा आदर्श व्यवहार होता है । जो अहंता-ममताके वशीभूत होत हैं, उनके आचरण मर्यादायुक्त, धर्मयुक्त नहीं होते ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे