।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७३, रविवार
साधकोपयोगी प्रश्नोत्तर



(गत ब्लॉगसे आगेका)

अपने स्त्री-पुत्र, परिवारमें ममता रखकर सेवा करेंगे तो उस सेवाकी मिट्टी हो जायगी; क्योंकि ममता व स्वार्थबुद्धि होनेसे वह सेवा खत्म हो जाती है । अपने बच्चोंका ममतापूर्वक पालन तो कुतिया भी करती है, पर उसका महत्त्व थोड़े ही है ! अतः चाहे ममतारहित होकर घरवालोंकी सेवा करें, चाहे जिनमें ममता नहीं है, उनकी सेवा करें, दोनोंका नतीजा एक ही होगा । तात्पर्य है कि बन्धनका कारण ममता ही है । घरमें रहना बन्धनका कारण नहीं है ।

जैसे, सद्‌वैद्य केवल सेवा करनेके लिये ही रोगीको अपना मानता है तो यह अपनापन (ममता) केवल उसको नीरोग करनेके लिये ही है । इसकी परीक्षा तब होती है, जब रोगी नीरोग होकर वैद्यकी विरोधी पार्टीमें शामिल हो जाय और वैद्यके विरुद्ध कार्य करे, फिर भी वैद्य ऐसा समझे कि मेरा उद्योग तो केवल उसको ठीक करनेका ही था, अब उसका उद्योग मेरको दुःख देनेका है तो अच्छी बात है । मैंने तो अपने कर्तव्यका पालन कर दिया । मैंने उसकी जो सेवा की है, वह उसको अपने अधीन बनानके लिये थोड़े ही की है । वह सब कुछ करनेमें स्वतन्त्र है ।

प्रश्नअहंता-ममताके बिना तो मनुष्य जड़ हो जायगा ?

स्वामीजीयह बात नहीं हैं । अहंता-ममताके बिना मनुष्य पत्थरकी तरह जड़ नहीं हो जायगा, प्रत्युत सावधान, सजग हो जायगा कि ये वस्तु-व्यक्ति पहले भी मेर नहीं थे, बादमें भी मेर नहीं रहेंगे और वर्तमानमें भी मेरे नहीं हैं; क्योंकि ये प्रतिक्षण मेरेसे अलग हो रहै हैं । हाँ, इनकी सेवा, सदुपयोग करके मैं अपना कल्याण कर सकता हूँ । वास्तवमें अपना कल्याण होनेमें धनादि पदार्थ कारण नहीं हैं, प्रत्युत उन पदार्थोंमें अपनी ममताका त्याग ही कारण है ।

प्रश्नअहम्‌का अर्थात् अपनी सत्ताका नाश हो जाय‒ऐसी मुक्ति कौन चाहेगा ?

स्वामीजीअहंता-ममता मिटनेमें अपनी सत्ताका नाश नहीं होता, प्रत्युत तुच्छताका नाश होता है और अपनी महत्ता प्रकट हो जाती है, जो वास्तवमें है‒‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’ (गीता २ । २४)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे