।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
त्यागसे कल्याण
  



(गत ब्लॉगसे आगेका)
असत्‌के त्यागका उपाय है‒हमारे पास जो वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य है, उसका प्रवाह हमारी तरफ न होकर संसारकी तरफ हो जाय अर्थात् वह संसारकी ही सेवामें लग जाय । यह कर्मयोग है । विवेक-विचारके द्वारा असत्‌से ऊँचे उठ जायँ, उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लें तो यह ज्ञानयोग है । सब कुछ भगवान्‌का मान लें और भगवान्‌को अपना मान लें तो यह भक्तियोग है । ये तीनों योग जीवका उद्धार करनेवाले हैं । तीनों योगोंमें खास बात है‒त्याग । त्याग करनेके लिये ही हमारेको यह मनुष्यशरीर मिला है । त्याग यही करना है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है । यह सम्बन्ध चाहे सेवा करके छोड़ दें, चाहे विचारपूर्वक छोड़ दें, चाहे भगवान्‌के शरण होकर छोड़ दें । गुणोंका संग ही जन्म-मरणमें कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । गुणोंका संग छूट जाय तो फिर जन्म-मरण कैसे होगा ?

माना हुआ सम्बन्ध न माननेसे छूट जाता है‒यह नियम है । संसारका सम्बन्ध माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं । जैसे अमावस्याकी रात्रि और सूर्यका परस्पर सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, ऐसे ही जड़ और चेतनका परस्पर सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । अतः जड़-चेतनका सम्बन्ध केवल माना हुआ है और न माननेसे छूट जायगा, जो कि वास्तवमें पहलेसे ही छूटा हुआ है । इस असत्य सम्बन्धकी मान्यता छोड़नेमें मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है । इसको छोड़नेकी योग्यता भी पापी-पुण्यात्मा, दुष्ट-सज्जन सबमें है । इसमें सब-के-सब पात्र हैं, कोई कुपात्र नहीं है । केवल त्यागका भाव चाहिये और कुछ नहीं । जब हम अपने मनसे ही सब कुछ छोड़ देंगे तो फिर बन्धन कैसे रहेगा ? असत्यको सत्य मानने और उसको महत्त्व देनेके कारण ही उसको छोड़ना कठिन प्रतीत होता है । मिट्टीके लौंदेको जहाँ फेंको, वहीं चिपक जाता है । दीवारपर फेंको तो दीवारको पकड़ लेता है । परन्तु रबरकी गेंदको फेंको तो वह कहीं चिपकती नहीं । हमें रबरकी गेंद बनना है, मिट्टीका लौंदा नहीं । चिपकना ही बन्धन है और न चिपकना, निर्लेप रहना ही मुक्ति है ।

जो पकड़ा है, अपना मान रखा है, उसको छोड़ दें अर्थात् अपनापन हटा लें तो मुक्ति हो जायगी । वास्तवमें संसार छूटा हुआ ही है । केवल थोड़े-से रुपये, थोड़ी-सी जमीन-जायदाद, थोड़े-से व्यक्ति पकड़े हुए हैं, बाकी सब तो छूटा हुआ है, सबसे मुक्ति है । अरबों रुपयोंसे मुक्ति है, अरबों वस्तुओंसे मुक्ति है, अरबों आदमियोंसे मुक्ति है । केवल थोड़े-से रुपये, वस्तु, व्यक्ति आदि पकड़े हुए हैं, उतना ही बन्धन है । उतना छोड दें तो फिर बन्धन कहाँ रहा ? तात्पर्य है कि मुक्ति कठिन नहीं है, बहुत सुगम है । वस्तु-व्यक्तिके सम्बन्धसे हम सुख लेना चाहते हैं‒इस सुख-लोलुपताके कारण मुक्ति कठिन मालूम देती है । वास्तवमें सुख बहुत थोड़ा है और दुःख बहुत अधिक है‒

‘अनाराम’ कहे   सुख एक रती,
दुख मेरु प्रमाण ही पावता है ॥

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे