(गत ब्लॉगसे आगेका)
असत्के त्यागका उपाय है‒हमारे पास जो वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य
है, उसका प्रवाह हमारी तरफ न होकर संसारकी तरफ हो जाय अर्थात् वह संसारकी ही सेवामें
लग जाय । यह कर्मयोग है । विवेक-विचारके द्वारा असत्से ऊँचे उठ जायँ, उससे सम्बन्ध-विच्छेद
कर लें तो यह ज्ञानयोग है । सब कुछ भगवान्का मान लें और भगवान्को अपना मान लें तो
यह भक्तियोग है । ये तीनों योग जीवका उद्धार करनेवाले हैं । तीनों योगोंमें खास बात
है‒त्याग । त्याग करनेके लिये ही हमारेको यह मनुष्यशरीर मिला है । त्याग यही करना है
कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है । यह सम्बन्ध चाहे सेवा करके
छोड़ दें, चाहे विचारपूर्वक छोड़ दें,
चाहे भगवान्के शरण होकर छोड़ दें । गुणोंका संग ही जन्म-मरणमें
कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता
१३ । २१) । गुणोंका संग
छूट जाय तो फिर जन्म-मरण कैसे होगा ?
माना हुआ सम्बन्ध न माननेसे छूट जाता है‒यह नियम
है । संसारका सम्बन्ध माना हुआ
है, वास्तवमें है नहीं । जैसे अमावस्याकी रात्रि और सूर्यका परस्पर सम्बन्ध हो ही नहीं
सकता, ऐसे ही जड़ और चेतनका परस्पर सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । अतः जड़-चेतनका
सम्बन्ध केवल माना हुआ है और न माननेसे छूट जायगा,
जो कि वास्तवमें पहलेसे ही छूटा हुआ है । इस असत्य सम्बन्धकी
मान्यता छोड़नेमें मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है । इसको छोड़नेकी योग्यता भी पापी-पुण्यात्मा,
दुष्ट-सज्जन सबमें है । इसमें सब-के-सब पात्र हैं,
कोई कुपात्र नहीं है । केवल त्यागका भाव चाहिये और कुछ नहीं
। जब हम अपने मनसे ही सब कुछ छोड़ देंगे तो फिर बन्धन कैसे रहेगा ?
असत्यको सत्य मानने और उसको महत्त्व देनेके कारण ही उसको छोड़ना
कठिन प्रतीत होता है । मिट्टीके लौंदेको जहाँ फेंको,
वहीं चिपक जाता है । दीवारपर फेंको तो दीवारको पकड़ लेता है ।
परन्तु रबरकी गेंदको फेंको तो वह कहीं चिपकती नहीं । हमें
रबरकी गेंद बनना है, मिट्टीका लौंदा नहीं । चिपकना ही बन्धन है और न चिपकना, निर्लेप
रहना ही मुक्ति है ।
जो पकड़ा है, अपना मान रखा है, उसको छोड़ दें अर्थात् अपनापन हटा लें तो मुक्ति हो जायगी । वास्तवमें
संसार छूटा हुआ ही है । केवल थोड़े-से रुपये,
थोड़ी-सी जमीन-जायदाद,
थोड़े-से व्यक्ति पकड़े हुए हैं,
बाकी सब तो छूटा हुआ है,
सबसे मुक्ति है । अरबों रुपयोंसे मुक्ति है,
अरबों वस्तुओंसे मुक्ति है,
अरबों आदमियोंसे मुक्ति है । केवल थोड़े-से रुपये,
वस्तु, व्यक्ति आदि पकड़े हुए हैं,
उतना ही बन्धन है । उतना छोड दें तो फिर बन्धन कहाँ रहा ?
तात्पर्य है कि मुक्ति कठिन नहीं है,
बहुत सुगम है । वस्तु-व्यक्तिके सम्बन्धसे
हम सुख लेना चाहते हैं‒इस सुख-लोलुपताके कारण मुक्ति कठिन मालूम देती है । वास्तवमें
सुख बहुत थोड़ा है और दुःख बहुत अधिक है‒
‘अनाराम’ कहे सुख
एक रती,
दुख मेरु प्रमाण ही पावता है ॥
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
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