।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, रविवार
श्रीमद्भगवद्गीताकी महिमा
  



उन्नति क्या है ? भगवद्‌गीताके छठे अध्यायके बाईसवें श्लोकमें आया है‒

यं लब्ध्वा चापरं लाभ   मन्यते नाधिक ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥

जिस परमात्माकी प्राप्तिरूप लाभको प्राप्त करके उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और जिस परमात्माकी प्राप्तिरूप अवस्थामें स्थित होकर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं होता । यह श्लोक मनुष्यकी उन्नतिकी पहचानका थर्मामीटर है । इसका अर्थ हुआ कि अब मेरेको कुछ मिल जाय, यह मनुष्यकी इच्छा नहीं होती । और दूसरी बात है कि दुःख उसे स्पर्श ही नहीं करता । इसका तात्पर्य हुआ कि मरनेका भय, जीनेकी इच्छा, पानेकी लालसा‒सब मिट जाते हैं और करनेको कोई काम बाकी नहीं रहता । तब समझना चाहिये कि मनुष्य-जीवनमें आकर हमने उन्नति की और जीवन सफल हो गया । परन्तु जबतक मरनेका भय रहता है तबतक समझना चाहिये कि जो काम करना चाहिये था, वह नहीं किया है । जानने लायकको नहीं जाना है, पाने लायकको नहीं पाया है और हमारा मनुष्य-जीवन सफल नहीं हुआ है ।

स्कूलमें पढ़ते समय अनुभव किया होगा कि यदि पाठ याद होता है तो निरीक्षणके लिये या परीक्षाके लिये कोई आता है और आपसे पूछता है तो इसमें आपको आनन्द आता है । परन्तु किसी छोरेको पाठ याद नहीं होता, तो वह छोरा पीछेको हो लेता है कि कहीं मेरेसे न पूछ लें । ऐसा भय लगता है । भय क्यों होता है ? भय इसलिये होता है कि जो पढ़ाई की है, वह ठीक नहीं की । ऐसे ही यह मानव-शरीर ब्रह्म-विद्याका अध्ययन करनेके लिये मिला है । यदि मनुष्यको मरनेका भय, जीनेकी इच्छा होती है तो इसका अर्थ है कि उसने ठीक प्रकारसे ब्रह्म-विद्याका पूरा अध्ययन नहीं किया । जब यह अध्ययन पूरा हो जायगा तो मरनेका भय और जीनेकी इच्छा नहीं रहेगी । फिर जीते रहें तो आनन्द, मर जायँ तो आनन्द, कोई चिन्ता नहीं, कोई इच्छा नहीं, कोई भय नहीं । फिर न जानना बाकी रहता है, न प्राप्त करना बाकी रहता है और न करना बाकी रहता है । इन चीजोंका तो खाता ही उठ जाता है । यह बात मैं आपसे सच्ची कहता हूँ । यह मेरी व्यक्तिगत बात नहीं है । मेरे घरकी बात नहीं है । यह सन्तोंकी, शास्त्रोंकी, भगवद्‌गीताकी बात है ।

मनुष्यमें एक करनेकी, एक जाननेकी और एक पानेकी‒तीन शक्तियाँ स्वाभाविक हैं । मनुष्य जबतक अपने लिये करता है तबतक वह कृतकृत्य नहीं होता । परन्तु जब करने लायक काम कर लेता है तब मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है अर्थात् उसे कुछ भी करना बाकी नहीं रहता । ऐसे ही चाहे मनुष्यको कितनी ही भाषाओंकी जानकारी हो जाय, वह कितना ही विद्वान् हो जाय, जबतक वह स्वयं अपने-आपको नहीं जानता, तबतक जानना बाकी रहेगा । परन्तु जब अपने-आपको ठीक-ठीक जान लेगा, फिर जानना बाकी नहीं रहेगा । इसी प्रकार पाना कबतक बाकी रहता है ? जबतक कि प्रभु-दर्शन, प्रभु-प्रेमकी प्राप्ति न हो जाय । जिस समय सर्वोपरि परमात्मा मिल जायँ, उनके दर्शन हो जायँ, उनका प्रेम प्राप्त हो जाय, तत्त्वका बोध हो जाय, फिर पाना बाकी नहीं रहेगा । और ये तीनों बातें मनुष्य-जन्ममें हो सकती हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे