(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीताने तो संसारको दुःखालय कहा है‒‘दुःखालयम्
( ८ । १५) । संसार दुःखोंका ही घर है,
यहाँ सुखको ढूँढना व्यर्थ है । रामायणमें भी आया है‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तर॰ ४४ । १) । यह मनुष्यशरीर सुख लेनेके लिये है ही नहीं । जहाँ
सुख लिया, वहीं फँसे ! मानमें, बड़ाईमें, आराममें, नीरोगतामें, आलस्यमें, प्रमादमें, खानेमें, सोनेमें, जिसमें सुख लेंगे, उसीमें फँस जायँगे । परन्तु ये सब चीजें छूटनेवाली हैं,
रहनेवाली नहीं हैं । जो चीज बिछुड़नेवाली
है, उससे अपनापन हटा लें‒यही मुक्ति है । यह अपनापन अपनेसे
न छूट सके तो भगवान्को पुकारो । वे छुड़ा देंगे । व्याकुल होकर, दुःखी
होकर भगवान्से कहो कि हे नाथ ! शरीर-संसारसे मेरापन छूटता नहीं, क्या
करूँ ! तो भगवान्की कृपासे छूट जायगा ।
संसारका कोई भी सुख रहता नहीं‒यह सबका अनुभव है । इसका कारण
यह है कि वह सुख हमारा है ही नहीं । अगर हमारा सुख होता तो वह सदा रहता । हमारा सुख
तो निजानन्द है । ‘पर’ से होनेवाला सुख परानन्द है और ‘स्व’
से होनेवाला सुख निजानन्द है । परानन्द
ठहरेगा नहीं और निजानन्द जायगा नहीं । निजानन्द हमारा खुदका है,
इसलिये एक बार अनुभवमें आनेपर फिर कभी हमारेसे अलग नहीं होता
। परानन्दकी आसक्तिके कारण ही निजानन्दका अनुभव नहीं होता
।
सांसारिक सुखकी आसक्ति न छूटे तो निराश नहीं होना चाहिये,
प्रत्युत व्याकुल होकर भगवान्को पुकारना चाहिये कि ‘हे नाथ
! हे प्रभो ! यह मेरेसे छूटती नहीं, क्या करूँ ? आप बचाओ तो बच सकता हूँ’‒
हौं हार्यो करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै ।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु
बरजै ॥
(विनय॰ ८९)
आप सबके प्रेरक हैं । आपकी प्रेरणासे छूट जायगी । आपके लिये
तो मामूली बात है‒‘काम हमारे जमत है, रमत
तिहारी राम ।’ ‘आपका तो खेल है, पर हमारी आफत मिट जायगी ।’ एक मार्मिक बात है कि सांसारिक सम्बन्धको छोड़नेकी
इच्छा करनेसे वह छूटता नहीं, प्रत्युत और दृढ़ होता है । कारण कि हम छोड़ना चाहते
हैं तो वास्तवमें उसको सत्ता देते हैं अर्थात् उसकी सत्ता मानते हैं, तभी
छोड़नेकी इच्छा करते हैं । इसलिये उससे तटस्थ हो जाये चुप हो जायँ अर्थात् एक परमात्मा
ही हैं‒ऐसा निश्चय करके कुछ भी चिन्तन न करें तो वह स्वतः छूट जायगा; क्योंकि
दूसरी सत्ता है ही नहीं, सत्ता एक ही है । हम तटस्थ नहीं होते, यही
बाधा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
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