(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम संसारका विरोध करते हैं,
तभी वह छूटता नहीं । वास्तवमें तो वह निरन्तर ही छूट रहा है
। केवल हमारे तटस्थ, उदासीन होनेकी आवश्यकता है । अगर हम केवल दुःखी,
व्याकुल हो जायँ तो भी वह छूट जायगा,
चाहे परमात्माको मानें या न मानें । जो योगमार्गमें अथवा ज्ञानमार्गमें
चल रहे हैं, उनके लिये तटस्थ होना बढ़िया है । जो
भक्तिमार्गमें चल रहे हैं, उनको भगवान्के सिवाय दूसरी सत्ता असह्य हो जाय ।
सांसारिक सम्बन्ध स्वतः छूट रहा है,
पर हम नया-नया पकड़ते रहते हैं । बालकपना छूट गया तो जवानी पकड़
ली, जवानी छूट गयी तो बुढ़ापा पकड़ लिया, रोगीपना छूटा तो नीरोगता पकड़ ली,
दरिद्रता छूटी तो धनवत्ता पकड़ ली । अगर यह पकड़ना छोड़ दें तो
वह स्वतः छूट ही जायगा । हमें केवल त्यागका भाव बनाना है, त्यागी
नहीं बनना है । त्यागी बननेसे त्याज्य वस्तुके साथ सम्बन्ध हो जायगा । जो मिला है, वह
तो छूटेगा ही । वह बना रहे अथवा न बना रहे‒यही बन्धन है, और
कोई बन्धन नहीं है । आजतक सृष्टिमें
किसीका भी सम्बन्ध नहीं रहा तो हमारा सम्बन्ध कैसे रहेगा ?
यह तो छूटेगा ही और प्रतिक्षण ही छूट रहा है । इसलिये हम ही
अलग हो जायँ !
पारमार्थिक मार्गमें साधकको हिम्मत नहीं हारनी चाहिये; क्योंकि
इसमें विजय निश्चित है । परमात्मासे तो कभी निराश नहीं होना चाहिये और संसारकी आशा
नहीं रखनी चाहिये‒‘आशा
हि परमं दुःखम्’ ( श्रीमद्भा॰ ११ । ८ । ४४) । परमात्मा परम दयालु हैं,
सर्वसमर्थ हैं और सर्वज्ञ हैं । वे सर्वज्ञ हैं,
इसलिये हमारे दुःखको जानते हैं । वे परम दयालु हैं,
इसलिये हमारे दु खको सह नहीं सकते । वे सर्वसमर्थ हैं,
इसलिये हमारे दुःखको दूर कर सकते हैं । परन्तु जो सांसारिक पदार्थोंके लिये दुःखी होता है, वह
कितना ही रोये, रोते-रोते मर जाय, पर
भगवान् उसकी बात सुनते ही नहीं । कारण कि वह वास्तवमें दुःखके लिये ही रो रहा है !
परन्तु जो संसारका त्याग करनेके लिये रोता है, भगवान्को
पानेके लिये रोता है, उसका दुःख भगवान् सह नहीं सकते ।
मनुष्य सांसारिक सुखमें फँसा है तो यह वास्तवमें केवल सुखलोलुपता
है, सुखका लोभ है । सुख मिलता नहीं है । सुखकी मामूली झलक मिलती है,
उसीमें वह फँसा रहता है । जैसे,
गधेको सुबह थोड़ा-सा मोठ-नमक मिलाकर देते हैं । उसको खानेसे दाँत
कड़कड़-कड़कड़ बोलते हैं तो वह राजी हो जाता है । फिर उससे दिनभर पत्थर ढोनेका काम लेते
हैं । रात होनेपर उसको छोड़ देते हैं । रातमें वह गलियोंमें घूमता रहता है और सुबह होनेपर
मोठ-चना खानेके लिये स्वतः चला आता है ! इस प्रकार थोड़े-से सुखके लिये गधा पूरे दिन
पत्थर ढोता है । अगर वह सुख छोड़ दे तो फिर पत्थर क्यों ढोना पड़े ! इसलिये जबतक हम थोड़े-से
सुखके लिये नया-नया सम्बन्ध जोड़ते रहेंगे,
तबतक दुःख छूटेगा नहीं । जहरके लड्डू हम नहीं छोड़ेंगे तो जहर
हमें नहीं छोड़ेगा । यह सुखासक्ति अगर हमारेसे न छूटे तो निर्बलताका
अनुभव करके भगवान्को पुकारना चाहिये‒
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक
सर्यो नहि काम ।
निरबल ह्वै बलराम पुकार्यो, आये आधे नाम ॥
द्रुपद सुता निरबल भइ ता दिन, तजि आये निज धाम ।
दुस्सासन की भुजा थकित भई, बसन रूप भये स्याम ॥
सुने री मैंने निरबलके
बल राम ॥
जबतक भगवान् सुखासक्ति न छुड़ाये,
तबतक पीछे पड़े रहो । जैसे बच्चा माँका पल्ला पकड़कर पीछे पड़ जाता
है कि मेरेको लड्डू दे दे तो माँ हारकर कह देती है कि जा,
ले ले ! ऐसे ही दुःखी होकर भगवान्के
पीछे पड़ जाओ तो वे सुखासक्ति छुड़ा देंगे ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
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