(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवद्गीतासे, सन्तोंकी वाणीसे और सत्संगसे मुझे इस बातका पता चला है
कि इसके लिये मनुष्यमात्र अधिकारी है चाहे, वह हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, पारसी, ईसाई कोई भी हो । किसी भी सम्प्रदायका
हो, वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, सिख आदि कोई क्यों न हो । मेरे सत्संगमें मुसलमान भी आते
हैं, आर्य-समाजी भी आते हैं । आर्य-समाजियोंने मुझे बुलाया
है, मैं गया हूँ । बहुतसे सम्प्रदायोंमें मेरा जानेंका
काम पड़ता है । मेरी बात किसी सम्प्रदायके, किसी मजहबके विरुद्ध नहीं होती । जैसे
माँ सब बच्चोंको प्यारसे दुलारती है, रखती है, उदारतासे दूध पिलाती है‒ऐसे ही हम सब
परमात्माके बच्चे हैं । अतः उस परमात्मारूपी माँका मस्तीसे, आनन्दसे दूध पीये । ‘दुग्धं गीतामृतं
महत्’ । यह बड़ा विलक्षण दूध है; जितना पीओगे, उतनी ही आपकी पुष्टि होती चली जायगी । जब गीतारूपी दूध पीनेमें रस आने लगेगा, तो निहाल हो जायँगे ।
गीता एक विलक्षण ग्रन्थ है । इसमें
केवल सात-सौ श्लोक हैं । परन्तु इसमें अलौकिक तत्त्व भरा है । इसकी संस्कृत सरल है
। हम सब इसे पढ़ सकते हैं, याद कर सकते हैं और काममें ला सकते
हैं । इनमें नयी-नयी बातें मिलती हैं । पहले भले ही आरम्भमें यह सोच लें कि मैंने तो
अब गीता पूरी पढ़ ली और मैं जानकार हो गया । परन्तु जैसे-जैसे इसमें गहरे उतरोगे वैसे-वैसे
पता लगेगा कि मैं तो बहुत कम जानता हूँ । इसमें नित्य नये-नये विचित्र भाव मिलतै हैं
। मुझे पाठ करते-करते गीता याद हो गयी । मैंने सीधा पाठ किया । फिर उलटा पाठ ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पाथो धनुर्धरः’ से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे......’ तक बिना गीताजी देखे एकान्तमें बैठकर किया, बड़ा विलक्षण आनन्द आया केवल पाठमात्र करनेसे । आप करके
देखें । उलटा पाठ करनेसे श्लोकोंपर विशेष ध्यान जाता है और
श्लोकोंके अर्थका विशेष ज्ञान होता है तथा बहुत शान्ति मिलती है । धन, विद्या, परिवार, मान, आदर आदि प्राप्त करके आप भले ही अपनेको बड़ा मान लें, परन्तु बड़े नहीं बनते । आप अविनाशी, इन विनाशी चीजोंसे क्या बड़े बनेंगे । परन्तु गीताका अध्ययन करके आप सर्वोपरि हो जायँगे । आपको परम शान्ति मिलेगी
। इनमें सन्देह नहीं ।
एक वैश्य भाईने मेरेको बताया कि हम
तो मानते थे कि गीता अच्छी है, परन्तु याद करनेपर मालूम पड़ा कि बड़ी
विलक्षण है । आप स्वयं अध्ययन करके, इसके भीतर प्रवेश करके देखें कि इस छोटे-से ग्रन्थमें कितने विचित्र तथा विलक्षण
भाव हैं । इसके भीतर प्रवेश करके आप अविनाशी परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लोगे ।
यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते
नाधिक ततः
फिर उस लाभको प्राप्त करके न कुछ करना
बाकी रहेगा, न कुछ जानना बाकी रहेगा । ऐसा होनेपर
फिर जीनेकी और कुछ करनेकी इच्छा नहीं रहती तथा मरनेका भय नहीं रहता । मनुष्य कृतकृत्य
हो जाता है, प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है । ज्ञात-ज्ञातव्य
हो जाता है । पूर्णता हो जाती है और मनुष्य-जन्म सफल हो जाता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
सन्त-महापुरुषोंके उपदेशके
अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी सच्ची सेवा है !
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