।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७३, सोमवार
अक्षय-तृतीया, श्रीपरशुराम-जयन्ती
श्रीमद्भगवद्गीताकी महिमा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवद्‌गीतासे, सन्तोंकी वाणीसे और सत्संगसे मुझे इस बातका पता चला है कि इसके लिये मनुष्यमात्र अधिकारी है चाहे, वह हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, पारसी, ईसाई कोई भी हो । किसी भी सम्प्रदायका हो, वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, सिख आदि कोई क्यों न हो । मेरे सत्संगमें मुसलमान भी आते हैं, आर्य-समाजी भी आते हैं । आर्य-समाजियोंने मुझे बुलाया है, मैं गया हूँ । बहुतसे सम्प्रदायोंमें मेरा जानेंका काम पड़ता है । मेरी बात किसी सम्प्रदायके, किसी मजहबके विरुद्ध नहीं होती । जैसे माँ सब बच्चोंको प्यारसे दुलारती है, रखती है, उदारतासे दूध पिलाती है‒ऐसे ही हम सब परमात्माके बच्चे हैं । अतः उस परमात्मारूपी माँका मस्तीसे, आनन्दसे दूध पीये । ‘दुग्धं गीतामृतं महत्’ । यह बड़ा विलक्षण दूध है; जितना पीओगे, उतनी ही आपकी पुष्टि होती चली जायगी । जब गीतारूपी दूध पीनेमें रस आने लगेगा, तो निहाल हो जायँगे ।

गीता एक विलक्षण ग्रन्थ है । इसमें केवल सात-सौ श्लोक हैं । परन्तु इसमें अलौकिक तत्त्व भरा है । इसकी संस्कृत सरल है । हम सब इसे पढ़ सकते हैं, याद कर सकते हैं और काममें ला सकते हैं । इनमें नयी-नयी बातें मिलती हैं । पहले भले ही आरम्भमें यह सोच लें कि मैंने तो अब गीता पूरी पढ़ ली और मैं जानकार हो गया । परन्तु जैसे-जैसे इसमें गहरे उतरोगे वैसे-वैसे पता लगेगा कि मैं तो बहुत कम जानता हूँ । इसमें नित्य नये-नये विचित्र भाव मिलतै हैं । मुझे पाठ करते-करते गीता याद हो गयी । मैंने सीधा पाठ किया । फिर उलटा पाठ ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पाथो धनुर्धरः’ से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे......’ तक बिना गीताजी देखे एकान्तमें बैठकर किया, बड़ा विलक्षण आनन्द आया केवल पाठमात्र करनेसे । आप करके देखें । उलटा पाठ करनेसे श्लोकोंपर विशेष ध्यान जाता है और श्लोकोंके अर्थका विशेष ज्ञान होता है तथा बहुत शान्ति मिलती है । धन, विद्या, परिवार, मान, आदर आदि प्राप्त करके आप भले ही अपनेको बड़ा मान लें, परन्तु बड़े नहीं बनते । आप अविनाशी, इन विनाशी चीजोंसे क्या बड़े बनेंगे । परन्तु गीताका अध्ययन करके आप सर्वोपरि हो जायँगे । आपको परम शान्ति मिलेगी । इनमें सन्देह नहीं ।

एक वैश्य भाईने मेरेको बताया कि हम तो मानते थे कि गीता अच्छी है, परन्तु याद करनेपर मालूम पड़ा कि बड़ी विलक्षण है । आप स्वयं अध्ययन करके, इसके भीतर प्रवेश करके देखें कि इस छोटे-से ग्रन्थमें कितने विचित्र तथा विलक्षण भाव हैं । इसके भीतर प्रवेश करके आप अविनाशी परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लोगे ।

यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिक ततः

फिर उस लाभको प्राप्त करके न कुछ करना बाकी रहेगा, न कुछ जानना बाकी रहेगा । ऐसा होनेपर फिर जीनेकी और कुछ करनेकी इच्छा नहीं रहती तथा मरनेका भय नहीं रहता । मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है, प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है । ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है । पूर्णता हो जाती है और मनुष्य-जन्म सफल हो जाता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे

सन्त-महापुरुषोंके उपदेशके अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी सच्ची सेवा है !