।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७३, बुधवार
अचला एकादशी-व्रत (सबका)
साधकोपयोगी प्रश्नोत्तर



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तबतक जीवन्मुक्त महापुरुषके द्वारा सुचारुरूपसे व्यवहार होता रहता है । वह व्यवहार दूसरोंके लिये आदर्श होता है । उसके व्यवहारसे शास्त्र बनते हैं । उस महापुरुषके व्यवहारका, आचरणोंका, अवस्थाका वर्णन करनेमें लेखन-प्रमादके कारण शास्त्रोंमें भूल हो सकती है, पर उसके आचरणोमें भूल नहीं हो सकती ।

भूलके दो रूप हैं‒तादात्म्यरूप भूल और विस्मृतिरूप भूल । जीवन्मुक्त महापुरुषमें तादात्म्यरूप भूल तो रहती ही नहीं, पर व्यवहारमें विस्मृतिरूप भूल हो सकती है । जैसे, उसे रस्सीमें साँप दीख सकता है, पर मोह नहीं हो सकता । जिस धातुकी इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि हैं, उसी धातुका संसार है । अतः उसे इन्द्रियोंसे संसार दीख सकता है, पर मोह नहीं हो सकता ।

प्रश्नलोमशजी अहंता-ममतारहित महात्मा थे, फिर उनको क्रोध कैसे आ गया ?

स्वामीजीमहात्माके द्वारा चार प्रकारसे व्यवहार होता है‒१. खुदके प्रारब्धसे २. सामनेवाले व्यक्तिके प्रारब्धसे ३. अपनी साधनाके अनुसार और ४. सामनेवाले व्यक्तिके भावके अनुसार ।

१. जिस प्रारब्धसे महात्माका शरीर बना है, उसके अनुसार महात्माके द्वारा व्यवहार होता रहता है ।

२. सामनेवाले व्यक्तिके प्रारब्धसे कभी-कभी महापुरुषोंमें शाप अथवा अनुग्रहकी वृत्ति हो जाती है । शापकी वृत्ति होनपर भी उससे बन्धन नहीं होता । अनुग्रहमें सामनेवाले व्यक्तिका अधिक पूज्यभाव, श्रद्धाभाव, आदरभाव, सेवाभाव कारण होता है । शापमें सामनेवाले व्यक्तिका पाप और महात्माका अपमान, तिरस्कार, खण्डन आदि कारण होते हैं । परन्तु महापुरुषोंके शापसे किसीका अहित नहीं होता‒‘साधु ते होइ न कारज हानी’ (मानस, सुन्दर ६ । २) । इसलिये अहल्याने ऋषि-शापको भी परम अनुग्रह माना‒‘मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना’ (मानस, बाल २११ । ३) । नारदजीने नल-कूबरको वृक्ष होनेका शाप दिया, पर अन्तमें नलकूबरको भगवान्‌के दर्शन हो गये, जो कि अनन्यभक्तिसे हाते हैं[*] । लोमशजीने काकभुशुण्डिजीको शाप दिया तो उससे उनमें विशेपता ही आयी । स्वयं काकभुशुण्डिजीने कहा है‒

भगति पच्छ हठ करि रहैउँ दीन्हि महारिषि साप ।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ    देखहु    भजन    प्रताप ॥
                                          (मानस, उत्तर ११४ ख)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे


[*] भगवान्‌ कहते हैं‒
साधूनां समचित्तानां    सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।
दर्शनान्नो भवेद् बन्धः पुंसोऽक्ष्णौः सवितुर्यथा ॥
                                            (श्रीमद्भा १० । १० । ४१)

‘जिनकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्णरूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन हाना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना ।’