।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७३, शनिवार
स्वाभाविकता क्या है ?




॥ श्रीहरिः ॥
२८-३-८३                                                                                        भीनासर धोरा
बीकानेर

बहुत बढ़िया बात है । उधर ख्याल किया जाय तो बहुत ही लाभकी बात है, बड़े भारी लाभकी बात है । एक होती है स्वाभाविक बात और एक होती है अस्वाभाविक । स्वाभाविक उसे कहते है, जो स्वतःसिद्ध है और अस्वाभाविक वह है, जो स्वतःसिद्ध नहीं है, किन्तु बनायी हुई है । परमात्मतत्त्व और संसार‒इन दोमें देखा जाय, तो परमात्मतत्त्व (चेतनतत्त्व) का अंश यह जीव है और प्रकृतिका अंश यह शरीर है । परमात्माके साथ जीवका सम्बन्ध स्वाभाविक है, स्वतःसिद्ध है और इसने जो शरीर और संसारके साथ सम्बन्ध माना है, यह सम्बन्ध अस्वाभाविक है । इसकी पहचान क्या है ? यह पहले नहीं और पीछे नहीं रहेगा, बीचमें यह माना हुआ सम्बन्ध है, जो कि अस्वाभाविक है तथा परमात्मा और इसका खुदका सम्बन्ध स्वाभाविक है । वह अस्वाभाविक नहीं है, स्वतः है ।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
                                                                        (गीता १५ । ७)

परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक है और संसारके साथ हमारा सम्बन्ध कृत्रिम है अर्थात् बनावटी है । परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध असली है, बनाया हुआ नहीं है । वह तो स्वतःसिद्ध है, स्वाभाविक है । संसारका सम्बन्ध हमने बनाया है और संसारको हम अपना मानते है‒यह कृत्रिम है अर्थात् अस्वाभाविक है; परन्तु अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव हो गया ।

जैसे, यह शरीर ‘मैं’ हूँ और कुटुम्ब, धन, सम्पत्ति आदि मेरी है । मैं और मेरा‒दोनों ही अस्वाभाविक हैं; परन्तु इन्हें स्वाभाविक मान लिया है कि यह तो बात ऐसी ही है । अब अभ्यासद्वारा इसको मिटाया कैसे जायगा ? मैं-मेरेका भाव मिटानेके लिये हम अभ्यास करते है । जो अभ्यासजन्य बात होगी, वह अस्वाभाविक ही होगी । जो अस्वाभाविक है, उसको मिटानेके लिये अस्वाभाविक उद्योग किया जाता है । इससे अस्वाभाविकता मिटती नहीं, क्योंकि अस्वाभाविकताका ही आदर किया जा रहा है । इस वास्ते अस्वाभाविकताको अस्वाभाविक मान लें कि संसारमें जो मैं और मेरापन कर रखा है, यह है नहीं; क्योंकि यह पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा तो बीचमें कहाँ है ? बीचमें जो अपना मानते है, उस अपनेपनका भी प्रतिक्षण सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है, मानो वियोग हो रहा है । जितने दिन आप और हम जी लिये, शरीर जी लिया, उतने दिन तो यह मर ही गया । उतने दिन तो शरीरका वियोग हो गया । अब जितने दिन साथमें रहना है, उतने दिन रहेगा, फिर वियोग हो ही जायगा ।  

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे