।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
स्वाभाविकता क्या है ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

अभ्यासमें तो संसारका सहारा लेना पड़ेगा; शरीर, इन्द्रियोंका, मनका, बुद्धिका, इनका सहारा लेना पड़ेगा और जड़ताके सहारेसे जड़ताका सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा, दृढ़ होगा । अवस्था दूजी बन जायगी । नट रस्सेपर चलता है तो अभ्यास करते-करते रस्सेपर चलने लग गया अवस्था दूजी हो गयी । ऐसे अभ्याससे अवस्था दूजी होती है, बोध नहीं होता । बोध कभी होगा तो विवेकसे होगा । विवेक दोनोंको ठीक अलग-अलग माननेसे होगा । और अलग-अलग ठीक माननेसे बोध हो जायगा, पर वह अभ्यासजन्य थोड़े ही होगा । जो बोध अभ्यासजन्य होगा वह मिट जायगा । जन्य होगा वह रहेगा कैसे ? जन्य तो उत्पत्तिवाला होता है तो नाश होगा ही उसका । मन-बुद्धि हमारे हैं नहीं, प्रकृतिके हैं ।

महाभूतान्यहंकारो   बुद्धिरव्यक्तमेव   च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचराः ॥
                                         (गीता १३ । ५)

‘इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रम्’ (गीता १३ । ६) यह क्षेत्र है और ‘एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञः’ क्षेत्रज्ञका सम्बन्ध क्षेत्रसे है । मैं अलग हूँ आपसे, इसमें अभ्यास करना पड़ा क्या ? आपका कोई मत हुआ, उससे मेरा मत नहीं मिला, मैं अलग हूँ, यह अभ्यास करना पड़ता है क्या ? बताओ ? ये दोनों साधना है । कम-से-कम इतनी बात आप समझो कि एक अभ्यासकी साधना है और एक विवेककी, सम्बन्ध-विच्छेदकी साधना है । और विवेक है वो तत्काल सिद्ध होता है और सदा रहता है । और अभ्यास किया हुआ कभी दृढ़ हो जाता है, कभी अदृढ़ हो जाता है‒ऐसी बातें अभ्यासमें होती है । बड़ा गहरा विषय है । मनन करो इन बातोंका, फिर शंका करो ।

प्रश्न‒महाराजजी ! यह संयोगमें वियोग मानना और संयोगमें वियोगकी अनुभूति करना‒ये अलग है क्या ?

उत्तर‒मानना और अनुभूति अलग-अलग है । मान करके अनुभव करो । मानना केवल याद करना नहीं है, तोतेकी तरह । तोतेकी तरह याद कर लेना है न, वो मानना नहीं है । अनुभव है कि न मैं शरीर हूँ ने मेरा शरीर है । यह वास्तवमें ठीक बात है, इससे शरीरके विकारको अपना नहीं मानोगे । नहीं तो शरीरके विकारोंको अपनेमें मानोगे तो शरीर रोगी हो गया तो मानो मैं रोगी हो गया । शरीर कमजोर हो गया तो मैं कमजोर हो गया । तू कैसे कमजोर हो गया ? शरीर मर जाय तो मैं मर गया, तू कैसे मर गया ? तो क्या अभीतक हमने इस बातको स्वीकार नहीं किया ? नहीं किया है, इस वास्ते दुःख पा रहे है । नहीं तो दुःख हो ही नहीं सकता । यह आप जानते हो कि आपको संयोग-वियोगसे दुःख होता है कि नहीं होता, बताओ ? होता है तो स्वीकार करनेपर कैसे होगा, बताओ ? दूसरे शरीरमें और इस शरीरमें क्या फर्क है ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे