।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७३, शनिवार
स्वाभाविकता क्या है ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

छिति जल यावक गगन समीरा ।
पंच रचित  यह  अधम  सरीरा ॥

संसारसे शरीरको अलग निकाल सकते हो ? दिखा सकते हो ? कह सकते हो कि संसारसे शरीर अलग है, यह बता सकते हो क्या ? बोलो ! शरीर संसारके साथ एक है कि आपके साथ एक है ? संसारके साथ है तो इसका विकार आपमें क्यों होता है ? स्वीकार कहाँ किया ? बातें सुनी है, सीख ली है, याद कर ली है । ये ठीक अनुभव हो जानेके बाद दुःख नहीं होगा, जलन नहीं होगी, संताप नहीं होगा । आप विचार करो, फिर होगा क्या ?

प्रश्न‒इस स्वीकृतिका स्वरूप क्या है ?

उत्तर‒स्वरूप यही है कि फिर सुख-दुःख नहीं होगा । संयोग-वियोगका असर नहीं पड़ेगा । ज्ञान होगा । ज्ञान होना और चीज है, असर पड़ना और चीज है । एक प्रभाव पड़ता है, वह असर है जो और है । ज्ञान कुछ और है । ज्ञान है, वह विकारोंको मिटाता है । ज्ञान नयी स्थिति पैदा नहीं करता ।

प्रश्न‒यह ज्ञान कैसे हो ?

उत्तर‒ज्ञान कैसे हो, यह लगन लग जाय, बस हो जायगा । इसके बिना न भोजन भावे, न प्यास लगे, न नींद आवे, न बात सुहावे । यह कैसे हो ? हो जायगा । है वो तो वास्तवमें, हो क्या जायगा ? उसकी जगह अज्ञानको लेकर उसके साथ रस ले रहे हो, इस वास्ते नहीं मिट रहा है । यहीं फेल हो जाते हैं । यह मत होने दो साहब । यह जँचती है कि नहीं मेरी बात ! युक्ति-संगत बात है, अनुभवसिद्ध बात है, शास्त्र-सम्मत बात है । शास्त्र-सम्मत, युक्ति-संगत, अनुभव-सिद्ध तीनों बातें हैं । फिर भी ख्याल ही नहीं होता कि स्वाभाविकता क्या है और अस्वाभाविकता क्या है ?
नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे

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अपना दृढ़ विचार कर लें कि चाहे दुःख आये या सुख, अनुकूलता आये या प्रतिकूलता, हमें तो भगवान्‌को प्राप्त करना ही है । यदि हम पहले अपने अन्तःकरणको शुद्ध करनेमें लग जायँगे तो भगवत्प्राप्तिमें बहुत देर लगेगी । हमारे उद्योग करनेकी अपेक्षा भगवान्‌की अनन्त अपार कृपाशक्ति हमें बहुत शीघ्र शुद्ध कर देगी । बच्चा कीचड़से लिपटा भी हो, यदि माँकी गोदमें चला जाय तो माँ स्वयं ही उसे साफ कर देती है ।   

(‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे)