।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
साधकोपयोगी प्रश्नोत्तर



(गत ब्लॉगसे आगेका)

३. महापुरुष जिस साधनासे तत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं, उसके अनुसार (सिद्धावस्थामें भी) उनका व्यवहार होता हैं । जो महापुरुष ज्ञानयोगसे सिद्धिको प्राप्त हुआ है, उसमें उदासीनता, तटस्थता, निरपेक्षता मुख्य रहती है । कर्मयोगसे सिद्धिको प्राप्त हुए महापुरुषमें कर्मप्रवणता (कर्म करनेका प्रवाह) मुख्य रहती है । भक्तियोगसे भगवान्‌को प्राप्त हुए महापुरुषमें करुणा, दया, भगवच्चर्चा आदि मुख्य रहते हैं । तात्पर्य है कि साधनावस्थामें उनका जैसा स्वभाव रहा है, वही स्वभाव सिद्धावस्थामें भी रहता है ।

४. सामनेवाले व्यक्तिका महात्मामें पूज्य, आदरका भाव होता है तो महात्माके द्वारा स्वतः ही ज्ञानकी चर्चा विशेषतासे होती है । परन्तु सामनेवाले व्यक्तिका विशेष आदरभाव न होनेसे महात्माके द्वारा उसके साथ सामान्य बर्ताव होता है । कोई तर्कबुद्धिसे सामने आता है तो उसके साथ उसीके भावके अनुसार उत्तर-प्रत्युत्तर होता है । परन्तु खुद महापुरुषमें कोई विकार नहीं होता ।

प्रश्नदुर्वासा तत्त्वज्ञ महापुरुष थे, फिर वे इतना क्रोध क्यों करते थे ?

स्वामीजीदुर्वासा तपस्वी माने जाते हैं । शाप देना, अनुग्रह करना आदि बातें ऊँचे तपस्वियोंमें ज्यादा होती हैं । उनमें तपोबलका अभिमान होता है, जबकि बोधका अभिमान नहीं होता ।

तपस्या एक बल है, पूँजी है । उस बलसे शाप और अनुग्रह‒दोनों हो सकते हैं । उसका सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी, परन्तु अहंता-ममतारहित गुणातीत महापुरुषोंके द्वारा प्रायः ऐसा व्यवहार नहीं होता । कभी साधनावस्थाकी वृत्तिका उदय होनसे अथवा सामनेवालेके प्रारब्धसे उनके द्वारा शाप अथवा अनुग्रहका व्यवहार हो सकता है । परन्तु यह व्यवहार राग-द्वेषपूर्वक हुआ है अथवा निर्विकारतापूर्वक‒इस भेदको स्वयं ही जाना जा सकता है । दूसरे व्यक्ति इसे नहीं समझ सकते; क्योंकि उनकी बुद्धि शुद्ध नहीं है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे