।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ पूर्णिमा, वि.सं.२०७३, सोमवार
कर्म अपने लिये नहीं



(गत ब्लॉगसे आगेका)

गीताके देखनेसे पता लगता है‒

अहं हि सर्वयज्ञानां   भोक्ता     प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्‌च्यवन्ति ते ॥
                                                        (९ । २४)

सम्पूर्ण यज्ञोंका व तपोंका भोक्ता मैं हूँ और सबका मालिक मैं हूँ, पर मेरेको नहीं जानते इस वास्ते पतन होता है । सब यज्ञों और तपोंका भोक्ता क्यों ? कि खाना-पीना, बैठना-उठना, सोना-जगना, चलना-फिरना, यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, उपवास, होम, सत्संग, स्वाध्याय आदि जो करना, केवल दुनिया मात्रके हितके लिये करना है । पाप, अन्याय नहीं करना है, केवल सेवा करना है । जो काम करें, सेवाभावसे ही करें । भगवान्‌की आज्ञा मानकर करें । भगवान् सब जगह है सज्जनो ! इतने मात्रसे सबका कल्याण हो जाय ! इतनी बात बहुत विलक्षणतासे जँच रही है । अभी गीता लिखानेका काम पड़ता है, उसमें मेरेको बहुत विचित्र अर्थ दीखता है । ये सीधी-सी बात, कुछ उद्योग नहीं करना है । भगवत्प्राप्तिके लिये उद्योगकी, कोई नये कामकी जरूरत नहीं है । निषिद्ध काम कोई न करें, विहित काम करें और मात्र दुनियाके हितके लिये करें । तो ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२ । ४) । प्राणिमात्रके हितमें केवल रत हो तो मेरेको प्राप्त हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं । किस रूपकी प्राप्ति होगी ? तो कहते हैं ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव’ सगुण रूपकी प्राप्ति कहते हैं और कोई निर्गुण-निराकार ब्रह्मकी प्राप्ति चाहते हो, तो कहते हैं‒

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
                                            (गीता ५ । २५)

प्राणिमात्रके हितमें रति करनी है और कुछ नहीं करना है, केवल सेवा करनी है । केवल इतना ही कि जो काम करें, खाना-पीना, सोना-उठना, जप-तप-ध्यान, तीर्थ-समाधि आदि करना, केवल सबकी सेवा करनेके लिये । इस भावसे, इतनी ही बात है ।

ध्यान देकर आपलोग सुनें, बहुत मार्मिक बात है, आप ख्याल कम करते है; क्योंकि मैंने ख्याल कम किया है, इस वास्ते मैं जानता हूँ । ख्याल कम करता है आदमी । यह मेरेपर ही लगाता है ।

केवल अपने स्वार्थका त्याग और दूसरोंके हितके लिये काम करना है । अपने लिये कुछ भी काम हम करते हैं तो उस कामका आरम्भ होता है और उस कामकी समाप्ति होती है । आदि और अन्त होता है तो उससे मिलनेवाला फल है, वो निरन्तर रहनेवाला कैसे मिलेगा ? आदि और अन्तवाला ही मिलेगा । हम अपने लिये कुछ करेंगे तो आदि और अन्तवाला ही फल मिलेगा । आदि-अन्तवाली क्रिया होगी और आदि-अन्तवाला ही फल मिलेगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे