।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७३, बुधवार
कर्म अपने लिये नहीं



(गत ब्लॉगसे आगेका)

ध्यान देना मार्मिक बात है हमारी ! बहुत विलक्षण बात है ! मैं विशेष प्रशंसा करता हूँ । आप तमाशा-खेल नहीं समझें कि इसकी आदत है, यों ही कहता है ! ऐसे ही नहीं कहता हूँ । ऐसी बात कहता हूँ कि मेरेको बहुत वर्ष सुनाते हुए हो गये । कितने वर्ष हो गये है । १९७९ विक्रम सम्बत्‌से अभी २०४० तक ६०-६१ वषोंसे सुनाता हूँ । ६१ वर्ष सुनाते हुए हो गये है मेरेको । यह इस वास्ते आपको कहता हूँ कि आप विशेष ध्यान दें । करना होता है दो आदमियोंके लिए, एक जो कर सकता है, उसपर करनेकी जिम्मेवारी होती है । मालपर जगात लगती है । इन्कमपर टेक्स लगता है । मुनाफा किया ही नहीं तो टेक्स किस बातका ? तो ये जो स्वयं चेतन है, इसके लिये कहते हैं कि करना नहीं बनता है । यह ख्याल करनेकी बात है, स्वयं चेतन है । इसके द्वारा कुछ हो ही नहीं सकता, अकर्ता है यह । यह जब कुछ करेगा तो संसारके सम्बन्धसे करेगा । मन है, बुद्धि है, अहंता है, इन्द्रियाँ है, शरीर है, प्राण है, प्रकृतिका कोई-न-कोई कार्य यह साथ लेगा तब इसमें कर्तापन आयेगा । प्रकृतिके सम्बन्ध बिना इसमें स्वयंमें कर्तापन नहीं है ।

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
                                            (गीता १३ । २९)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा  कर्ताहमिति मन्यते ॥
                                              (गीता ३ । २७)

मूढ मानता है कि मैं कर्ता हूँ पर कर्तृत्व स्वयं चेतनमें नहीं है । जब कर्तृत्व नहीं है तो करनेकी जिम्मेवारी नहीं है इसपर, क्या समझे ? कर सकता है, तब करनेकी जिम्मेवारी होती है । जब स्वयं कुछ नहीं करता है तो खुदपर करनेकी जिम्मेवारी है ही नहीं । प्रकृतिको साथ लेता है तो कर्तापन साथ आता है और करनेकी जिम्मेवारी भी आती है तो वो किसको लेकर, केवल प्रकृतिको लेकर करनेकी जिम्मेवारी हुई तो केवल प्रकृतिकी सिद्धिके लिये और प्राकृत संसारके लिये करना हुआ । अपने लिये करना हुआ ही नहीं । ख्याल किया कि नहीं ? भाई ! यह बहुत मार्मिक बात है ।

सब धर्मोंको छोड़कर तू मेरी शरण आजा, तेरेको कुछ नहीं करना होगा तो इसके करना कुछ नहीं है; क्योंकि स्वयंमें कर्तृत्व नहीं है । इस वास्ते करनेकी इसपर जिम्मेवारी है ही नहीं । जिम्मेवारी तब होती है, जब यह प्रकृतिकी वस्तुको स्वीकार करता है । शरीर है, प्राण है, मन है, बुद्धि है, इन्द्रियाँ है, मैं-मैंपन है‒इनको स्वीकार करता है, तब करनेकी जिम्मेवारी आती है; क्योंकि करनेकी सामग्री इसने स्वीकार कर ली, इस वास्ते करना होता है । वो सामग्री प्रकृतिसे मिली तो प्रकृतिजन्य संसारके लिये ही करना है, अपने लिये करना है ही नहीं, क्योंकि अपने शुद्ध स्वरूपमें करना है नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे