।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७३, गुरुवार
कर्म अपने लिये नहीं



(गत ब्लॉगसे आगेका)

दो आदमियोंके लिये करना होता है, किनके लिये ? जो कर सकता है, उसके लिये करनेकी जिम्मेवारी होती है और जो स्वयं चाहता है, उसके लिये करना पड़ता है । यह चाहता है तो करो भाई, काम करो । इसमें खुदमें चाहना नहीं है, क्योंकि यह पूर्ण है ।

‘नाभावो विद्यते सतः’ सत् वस्तुका अभाव नहीं होता । ये सत् स्वरूप है तो इसमें अभाव बिना कामना कैसे होगी ? कामना कुछ-न-कुछ कमी होनेसे ही होती है न ? उस कमीकी पूर्तिके लिये । पर यह चेतन है, शुद्ध है, सहज सुख-राशि है । चाहना तो उसमें सुखके लिये होती है न ? सहज सुख-राशि, उसके सुखकी चाहना है ही नहीं । इसे कुछ करना है ही नहीं । स्वरूपमें करना नहीं है और चाहना नहीं है, करना इसमें बन नहीं सकता । इस वास्ते खुदके लिये कुछ नहीं करना है, केवल दुनियाके हितके लिये करना है; क्योंकि दुनियासे शरीर मिला है । यह शरीर अपना नहीं है । यह जो दुनिया दीखती है, इस दुनियाका यह अंश है छोटा-सा ।

छिति जल पावक गगन समीरा
पंच रचित  यह  अधम  सरीरा ॥

‒यह दुनियाका अंश है, दुनियासे पैदा हुआ है, दुनियासे ही पला है, दुनियामें ही रहता है, इस वास्ते इसको जो कुछ भी करना है, वह दुनियाके हितके लिये ही करना है और दुनियाके अहितके लिये करे तो बहुत बड़ी गलतीकी बात है । केवल सेवारूपसे, दुनियाके लिये करना है । अपने लिये करना है ही नहीं, सबके हितके लिये करना है‒क्योंकि सबसे चीज मिली है । सबसे मिली हुई चीजको, शरीरको अपना कह देते हो‒यह गलती है । अगर शरीर मेरा है तो पाञ्भौतिक मात्रसृष्टि मेरी है और पाञ्चभौतिक सृष्टि मेरी नहीं तो शरीर मेरा कैसे ? शरीरकी और सृष्टिकी एक जाति है । आप अलग सिद्ध कर सकते हो क्या कि यह शरीर संसारसे अलग है ? अलग है ही नहीं । स्थूल, सूक्ष्म, और कारण‒तीनों शरीर; स्थूल, सूक्ष्म और कारण संसारके साथ एक है । इनमेंसे एक शरीरको अपना मानना गलती है ! उनके लिये ही मानकर उनकी सेवा करनी है ।

जैसे कोई ऑफिसमें जाता है, वहाँ बैठता है तो कुर्सी भी वहीं है, टेबल भी वहीं है, दवात भी वहीं, कलम भी वहीं, रजिस्टर भी वहीं है । वहाँ ही बैठकर, वहाँका काम कर देता है । खाली हाथ ही जाता है और खाली हाथ ही उठकर आ जाता है । ऐसे ही यहाँ आये हो, यहाँ सामग्री मिली है । केवल यहाँके लिये काम कर देना है, उठकर फिर चल देना है । अपने लिये करना है ही नहीं । मात्र दुनियाके लिये करना है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे