।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

तीसरी बात, जिसका उद्देश्य परमात्माकी प्राप्तिका है, वह भगवत्सम्बन्धी कार्योंको मुख्यतासे करते हुए भी वर्ण-आश्रमके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंको पूजन-बुद्धिसे केवल भगवत्‌-प्रीत्यर्थ ही करता है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒

यतः  प्रवृत्तिर्भूतानां    येन  सर्वमिदं  ततम् ।
स्वकर्मणा तमभर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
                                             (गीता १८ । ४६)
        इस श्लोकमें भगवान्‌ने बड़ी श्रेष्ठ बात बतायी है कि जिससे सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका ही लक्ष्य रखकर, उसके प्रीत्यर्थ ही पूजन-रूपसे अपने-अपने वर्णके अनुसार कर्म किये जायँ । इसमें मनुष्यमात्रका अधिकार है । देवता, असुर, पशु, पक्षी आदिका स्वतः अधिकार नहीं है; परन्तु उनके लिये भी परमात्माकी तरफसे निषेध नहीं है । कारण कि सभी परमात्माका अंश होनेसे परमात्माकी प्राप्तिके सभी अधिकारी हैं । प्राणिमात्रका भगवान्‌पर पूरा अधिकार है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि आपसके व्यवहारमें अर्थात् रोटी, बेटी और शरीर आदिके साथ बर्ताव करनेमें तो जन्म’ की प्रधानता है और परमात्माकी प्राप्तिमें भाव, विवेक और कर्म’ की प्रधानता है । इसी आशयको लेकर भागवतकारने कहा है कि जिस मनुष्यके वर्णको बतानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवालेमें भी मिले तो उसे भी उसी वर्णका समझ लेना चाहिये ।[1] अभिप्राय यह है कि ब्राह्मणके शम-दम आदि जितने लक्षण हैं, वे लक्षण या गुण स्वाभाविक ही किसीमें हों तो जन्ममात्रसे नीचा होनेपर भी उसको नीचा नहीं मानना चाहिये । ऐसे ही महाभारतमें युधिष्ठिर और नहुषके संवादमें आया है कि जो शूद्र आचरणोंमें श्रेष्ठ है, उस शूद्रको शूद्र नहीं मानना चाहिये और जो ब्राह्मण ब्राह्मणोचित कर्मोंसे रहित है, उस ब्राह्मणको ब्राह्मण नहीं मानना चाहिये[2] अर्थात् वहाँ कर्मोंकी ही प्रधानता ली गयी है, जन्मकी नहीं ।

शास्त्रोंमें जो ऐसे वचन आते हैं, उन सबका तात्पर्य है कि कोई भी नीच वर्णवाला साधारण-से-साधारण मनुष्य अपनी पारमार्थिक उन्नति कर सकता है, इसमें संदेहकी कोई बात नहीं है । इतना ही नहीं, वह उसी वर्णमें रहता हुआ शम, दम आदि जो सामान्य धर्म हैं, उनका सांगोपांग पालन करता हुआ अपनी श्रेष्ठताको प्रकट कर सकता है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे



[1] यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत्   तेनैव विनिर्दिशेत् ॥
                                      (श्रीमद्भा ७ । ११ । ३५)

[2] शूद्रे तु यद् भवेल्लक्ष्म    द्विजे तच्च न विद्यते ।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ॥
यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प     वृत्तं स ब्राह्मणः स्मृतः ।
यत्रैतन्न भवेत् सर्प   तं   शूद्रमिति निर्दिशेत् ॥
                                   (महाभारत, वनपर्व १८० । २५-२६)