।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
योगिनी एकादशी-व्रत (सबका)
जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?





(गत ब्लॉगसे आगेका)

ब्राह्मणको विराट्‌रूप भगवान्‌का मुख, क्षत्रियको हाथ, वैश्यको ऊरु (मध्यभाग) और शूद्रको पैर बताया गया है । ब्राह्मणको मुख बतानेका तात्पर्य है कि उनके पास ज्ञानका संग्रह है, इसलिये चारों वर्णोंको पढ़ाना, अच्छी शिक्षा देना और उपदेश सुनाना‒यह मुखका ही काम है । इस दृष्टिसे ब्राह्मण ऊँचे माने गये ।

क्षत्रियको हाथ बतानेका तात्पर्य है कि वे चारों वर्णोंकी शत्रुओंसे रक्षा करते हैं । रक्षा करना मुख्यरूपसे हाथोंका ही काम है; जैसे‒शरीरमें फोड़ा-फुंसी आदि हो जाय तो हाथोंसे ही रक्षा की जाती है; शरीरपर चोट आती हो तो रक्षाके लिये हाथ ही आड़ देते हैं, और अपनी रक्षाके लिये दूसरोंपर हाथोंसे ही चोट पहुँचायी जाती है; आदमी कहीं गिरता है तो पहले हाथ ही टिकते हैं । इसलिये क्षत्रिय हाथ हो गये । अराजकता फैल जानेपर तो जन, धन आदिकी रक्षा करना चारों वर्णोंका धर्म हो जाता है ।

वैश्यको मध्यभाग कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पेटमें अन्न, जल, औषध आदि डाले जाते हैं तो उनसे शरीरके सम्पूर्ण अवयवोंको खुराक मिलती है और सभी अवयव पुष्ट होते हैं, ऐसे ही वस्तुओंका संग्रह करना, उनका यातायात करना, जहाँ जिस चीजकी कमी हो वहाँ पहुँचाना, प्रजाको किसी चीजका अभाव न होने देना वैश्यका काम है । पेटमें अन्न-जलका संग्रह सब शरीरके लिये होता है और साथमें पेटको भी पुष्टि मिल जाती है; क्योंकि मनुष्य केवल पेटके लिये पेट नहीं भरता । ऐसे ही वैश्य केवल दूसरोंके लिये ही संग्रह करे, केवल अपने लिये नहीं । वह ब्राह्मण आदिको दान देता है, क्षत्रियोंको टैक्स देता है, अपना पालन करता है और शूद्रोंको मेहनताना देता है । इस प्रकार वह सबका पालन करता है । यदि वह संग्रह नहीं करेगा, कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य नहीं करेगा तो क्या देगा ?

शूद्रको चरण बतानेका तात्पर्य है कि जैसे चरण सारे शरीरको उठाये फिरते हैं और पूरे शरीरकी सेवा चरणोंसे ही होती है, ऐसे ही सेवाके आधारपर ही चारों वर्ण चलते हैं । शूद्र अपने सेवा-कर्मके द्वारा सबके आवश्यक कार्योंकी पूर्ति करता है ।

उपर्युक्त विवेचनमें एक ध्यान देनेकी बात है कि गीतामें चारों वर्णोंके उन स्वाभाविक कर्मोंका वर्णन है, जो कर्म स्वतः होते हैं अर्थात् उनको करनेमें अधिक परिश्रम नहीं पड़ता । चारों वर्णोंके लिये और भी दूसरे कर्मोंका विधान है, उनको स्मृति-ग्रंथोंमें देखना चाहिये और उनके अनुसार अपने आचरण बनाने चाहिये । यही बात गीताजीने कही है‒

तस्माच्छास्त्र प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं    कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
                                                    (१६ । २४)

‘अतः तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है‒ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है ।’

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे