।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७३, रविवार
वर्ण-व्यवस्थाका तात्पर्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

(२)

शास्त्रोंमें आता है कि पुण्योंकी अधिकता होनेसे जीव स्वर्गमें जाता है और पापोंकी अधिकता होनेसे नरकोंमें जाता है तथा पुण्य-पाप समान होनेसे मनुष्य बनता है । इस दृष्टिसे किसी भी वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिका कोई भी मनुष्य सर्वथा पुण्यात्मा या पापात्मा नहीं हो सकता । पुण्य-पाप समान होनेपर जो मनुष्य बनता है, उसमें भी अगर देखा जाय तो पुण्य-पापोंका तारतम्य रहता है अर्थात् किसीके पुण्य अधिक होते हैं और किसीके पाप अधिक होते हैं ।[1] ऐसे ही गुणोंका विभाग भी है । कुल मिलाकर सत्त्वगुणकी प्रधानतावाले ऊर्ध्वलोकमें जाते हैं । रजोगुणकी प्रधानतावाले मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोकमें आते हैं और तमोगुणकी प्रधानतावाले अधोगतिमें जाते हैं । इन तीनोंमें भी गुणोंके तारतम्यसे अनेक तरहके भेद होते हैं ।

सत्त्वगुणकी प्रधानतासे ब्राह्मण, रजोगुणकी प्रधानता और सत्त्वगुणकी गौणतासे क्षत्रिय, रजोगुणकी प्रधानता और तमोगुणकी गौणतासे वैश्य तथा तमोगुणकी प्रधानतासे शूद्र होता है । यह तो सामान्य रीतिसे गुणोंकी बात बतायी । अब इनके अवान्तर तारतम्यका विचार करते हैं‒रजोगुण-प्रधान मनुष्योंमें सत्त्वगुणकी प्रधानतावाले ब्राह्मण हुए । इन ब्राह्मणोंमें भी जन्मके भेदसे ऊँच-नीच ब्राह्मण माने जाते हैं और परिस्थितिरूपसे कर्मोंका फल भी कई तरहका आता है अर्थात् सब ब्राह्मणोंकी एक समान अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति नहीं आती । इस दृष्टिसे ब्राह्मणयोनिमें भी तीनों गुण मानने पड़ेंगे । ऐसे ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी जन्मसे ऊँच-नीच माने जाते हैं और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी कई तरहकी आती है । इसलिये गीतामें कहा गया है कि तीनों लोकोंमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो तीनों गुणोंसे रहित हो (१८ । ४०) ।

अब जो मनुष्येतर योनिवाले पशु-पक्षी आदि हैं, उनमें भी ऊँच-नीच माने जाते हैं; जैसे गाय आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कुत्ता, गधा, सूअर आदि नीच माने जाते हैं । कबूतर आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कौआ, चील आदि नीच माने जाते हैं । इन सबको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी एक समान नहीं मिलती । तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगतिवालोमें भी कई तरहके जाति-भेद और परिस्थिति-भेद होते हैं ।

(गीता १८ । ४१ की व्याख्यासे)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे



[1] जैसे परीक्षामें अनेक विषय होते हैं और उन विषयोंमेंसे किसी विषयमें कम और किसी विषयमें अधिक नम्बर मिलते हैं । उन सभी विषयोंके नम्बरोंको मिलाकर कुल जितने नम्बर आते हैं, उनसे परीक्षाफल तैयार होता है । ऐसे ही प्रत्येक मनुष्यके किसी विषयमें पुण्य अधिक होते हैं और किसी विषयमें पाप अधिक होते हैं और कुल मिलाकर जितने पुण्य-पाप होते हैं, उसके अनुसार उसको जन्म मिलता है । अगर अलग-अलग विषयोंमें सबके पुण्य-पाप समान होते तो सभीको बराबर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति मिलती पर ऐसा होता नहीं । इसलिये सभीके पुण्य-पापोंमें अनेक प्रकारका तारतम्य रहता है । यही बात सत्त्वादि गुणोंके विषयमें भी समझनी चाहिये ।